________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 332 द्वितीयपक्षे तु प्राप्तेरभावोऽप्राप्तिः सा च न भिद्यतेऽ भावस्य स्वयं सर्वत्राभेदात्। कथमवग्रहाद्युत्पत्तौ सा कारणमिति चेत् तस्यां तत्प्रादुर्भावानुभवात् निमित्तमात्रत्वोपपत्तेः प्राप्तिवत् प्रधानं तु कारणं स्वावरणक्षयोपशम एवेति न किंचन विरुद्धमुत्पश्यामः। अत्र परस्य चक्षुषि प्राप्यकारित्वसाधनमनूद्य दूषयन्नाह;चक्षुः प्राप्तपरिच्छेदकारणं बहिरिन्द्रियात् / स्पर्शनादिवदित्येके तन्न पक्षस्य बाधनात् // 8 // और अर्थ की अप्राप्ति तो पृथक् हो जाएगी परन्तु फिर अर्थ तो इस प्रकार अलग-अलग नहीं हो सकेगा क्योंकि परिभाषा का ऐसा वचन प्रसिद्ध है कि “पर्युदासपक्ष में नञ् का अर्थ इवकार युक्त है। इस प्रकार नियम से अन्य सदृश अधिकरण में अर्थ की ज्ञप्ति हो जाती है। “भूतले घटाभावः" यहाँ घटाभाव का अर्थ घट से रहित है किन्तु वह अप्राप्ति तो चक्षु, मन द्वारा हुए अवग्रह, ईहा आदि ज्ञानों का कारण नहीं है अतः देश भेद से अप्राप्ति का भेद होने पर भी उन अवग्रह आदि ज्ञानों में भेद कैसे हो सकता है? अर्थात् नहीं। भावार्थ : इससे यह सिद्ध होता है कि प्राप्ति का भेद हो जाने से स्पर्शन या श्रोत्रजन्य व्यंजनावग्रहों में तो कुछ अन्तर है किन्तु चक्षु, मन से उत्पन्न अर्थावग्रहों में एकसी अप्राप्ति होने के कारण अन्तर नहीं है। द्वितीय “प्रसज्यपक्ष" का आश्रय लेने पर तो प्राप्ति का अभाव अप्राप्ति है, किन्तु वह अप्राप्ति तो स्वयं भिन्न नहीं है। अभाव पदार्थ तो स्वयं सर्वत्र भेद नहीं रखता हुआ एकसा रहता है अतः अप्राप्यकारी इन्द्रियों के द्वारा अवग्रह एकसा होता है। शंका : प्रसज्यरूप अप्राप्ति को अवग्रह आदि ज्ञानों की उत्पत्ति में कारण कैसे कह देते हो? समाधान : उन चक्षु और मन के अप्राप्ति होने पर उन अवग्रह आदिकों की उत्पत्ति होने का अनुभव होता है अत: सामान्य रूप से केवल अप्राप्ति को निमित्तपना बन जाता है जैसे कि प्राप्यकारी चार इन्द्रियों द्वारा अवग्रह आदि उत्पन्न होने में प्राप्ति को सामान्य निमित्तपना बन जाता है, क्योंकि अवग्रह आदि ज्ञानों की उत्पत्ति में प्रधानकारण तो अपने-अपने आवरण कर्मों का क्षयोपशम ही है। इस प्रकार के सिद्धान्त में कोई विरुद्ध दोष नहीं दीखता है अर्थात् पुण्य और पाप या चुम्बक जैसे पदार्थ को नहीं प्राप्त कर ही खींच लेते हैं, उसी प्रकार चक्षु और मन इन्द्रियाँ अप्राप्त अर्थ को विषय कर लेती हैं, इसमें कोई दोष नहीं है। ___ इस प्रकरण में दूसरे विद्वानों के चक्षु में प्राप्यकारीपन के साधन को अनुवाद कर दूषित करते हुए आचार्य स्पष्ट विवेचन करते हैं - वैशेषिक : चक्षु अपने साथ सम्बन्ध को प्राप्त अर्थ की परिच्छित्ति का कारण है, बाह्य इन्द्रिय होने से स्पर्शन, रसना आदि इन्द्रियों के समान / जैनाचार्य - परन्तु आपका यह मन्तव्य ठीक नहीं है, पक्ष का बाधक होने से। भावार्थ : बहिरिन्द्रियत्व हेतु कालात्ययापदिष्ट है। अर्थात् - सभी आँखों वाले जीव दूरवर्ती पदार्थ को ही देखते हैं। प्रत्युत् आँख के साथ सम्बन्ध को प्राप्त हुआ पदार्थ तो दीखता भी नहीं है॥८॥ पदार्थों की अप्राप्ति कर जानने वाले देखने वाले कृष्ण तारामण्डल गोलक आदि स्वरूप बाह्य का प्राप्त होना प्रत्यक्ष प्रमाण से बाधित है। अर्थात् बहिरंग चक्षु जब चक्षुपद से लिए जायेंगे तब तो अर्थ की अप्राप्ति कर जानने