________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 335 मनोवत् / न हि प्राप्तिरेव तस्य विषयज्ञानजनननिमित्तमंजनादेः प्राप्तस्याप्रवेदनात् / योग्यतायास्तत्रा भावात्तदप्रवेदनमिति चेत् सैवास्तु किं प्राप्तिनिर्बधेन। योग्यतायां हि सत्यां किंचिदक्षं प्राप्तमर्थं परिच्छिनत्ति किंचिदप्राप्तमिति यथाप्रतीतमभ्युपगंतव्यं / न हि प्राप्त्यभावेऽर्थपरिच्छेदनयोग्यताक्षस्य न संभवति मनोवद्विरोधाभावात्। येन प्रतीत्यतिक्रमः क्रियते ततो न स्वरूपासिद्धो हेतुः / ___ पक्षाव्यापकोपि न भवतीत्याह;पक्षाव्यापकता हेतोर्मनस्यप्राप्यकारिणि / विरहादिति मंतव्यं नास्यापक्षत्वयोग्यतः॥१४॥ में ज्ञान को उत्पन्न कराने के लिए मन के समान चक्षु द्वारा सामर्थ्य नहीं होता किन्तु विषय के साथ सम्बन्ध नहीं करके भी चक्षुइन्द्रिय मन के समान ज्ञान उत्पन्न करने में निमित्त हो सकती है। उस चक्षु की विषय के साथ प्राप्ति हो जाना ही कोई विषयज्ञान को उत्पन्न करने का निमित्त नहीं है, क्योंकि आँख के साथ सर्वथा संयुक्त अंजन, आदि का वेदन नहीं होता है। यदि वैशेषिक कहें कि उस अंजन आदि में चाक्षुष प्रत्यक्ष हो जाने की योग्यता नहीं है, अत: उनका वेदन नहीं हो पाता है तो उस पर जैनाचार्य कहते हैं कि वह योग्यता ही चाक्षुषप्रत्यक्ष का निमित्त हो जायेगी। व्यर्थ ही चक्षु के साथ विषय की प्राप्ति का आग्रह करने से क्या लाभ है? स्वकीय स्वावरण क्षयोपशमरूप योग्यता के होने पर ही कोई स्पर्शन, रसना, घ्राण, श्रोत्र-इन्द्रियाँ तो प्राप्त अर्थ की परिच्छित्ति करती हैं और योग्यता होने पर कोई मन और चक्षु इन्द्रियाँ अप्राप्त अर्थ को जान लेती हैं। इस प्रकार प्रमाणसिद्ध प्रतीत पदार्थ का अतिक्रमण नहीं करके स्वीकार कर लेना चाहिए। चक्षु, स्पर्शन आदि इन्द्रियों की विषय के साथ प्राप्ति नहीं मानने पर अर्थज्ञप्ति कराने की योग्यता ही इन्द्रियों के संभव नहीं है - यह नहीं समझना चाहिए क्योंकि मन इन्द्रिय के समान चक्षु इन्द्रिय की भी विषय के साथ प्राप्ति नहीं होने पर अर्थग्रहण योग्यता हो जाने का कोई विरोध नहीं है, जिससे कि प्रतीतियो का अतिक्रमण किया जाए / प्रत्युत प्राप्ति के बिना भी मन और चक्षुयें अर्थ को व्यक्त जानते हैं। अर्थात् बालक, वृद्ध, पशु, पक्षियों तक को चक्षु के अप्राप्यकारीपन की प्रतीति होती है अत: चक्षु में अप्राप्यकारीपन सिद्ध करने के लिए दिया गया स्पृष्ट-अनवग्रह हेतु स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास नहीं है। यह स्पृष्टानवग्रह हेतु अपने पक्ष में अव्यापक भी नहीं है (अर्थात् पक्ष के पूरे भागों में व्याप जाता हैं। जो हेतु पूरे पक्ष में नहीं व्यापता है, उसको भागासिद्ध हेत्वाभास कहते हैं।) यह भागासिद्ध हेत्वाभास नहीं है, उसी को कहते हैं। अप्राप्यकारी मन में स्पष्ट अर्थ का प्रकाशन नहीं करना रूप हेतु की पक्ष में अव्यापकता है। अर्थात् चक्षु के समान मन इन्द्रिय भी तो अप्राप्यकारी है अत: अतिनिकट पदार्थ का अवग्रह नहीं करना यह हेतु मन में नहीं रहता है अत: मन इन्द्रिय में हेतु का विरह होने से स्पृष्ट अर्थ अप्रकाशकपना हेतु भागासिद्ध है, पूरे पक्ष में व्यापक नहीं है, ऐसा नहीं मानना चाहिए क्योंकि इस मन को यहाँ अनुमान में पक्षपने की योग्यता नहीं मानी गई है। अर्थात् अकेला चक्षु ही पक्ष है इसमें स्पृष्टानवग्रह हेतु व्यापक है। अर्थात् मन