________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 315 क्षिप्रावग्रहादिवदक्षिप्रावग्रहादयः संति त्रयात्मनो वस्तुनः सिद्धेः॥ प्राप्यकारीद्रियैर्युक्तोऽनिसृतानुक्तवस्तुनः। नावग्रहादिरित्येकेऽप्राप्यकारीणि तानि वा // 39 // प्राप्यकारिभिरिंद्रियैः स्पर्शनरसनघ्राणश्रोत्रैरनिसृतस्यानुक्तस्य चार्थस्यावग्रहादिरनुपपन्न एव विरोधात् / तदुपपन्नत्वे वा न तानि प्राप्यकारीणि चक्षुर्वत् / चक्षुषोपि ह्यप्राप्तार्थपरिच्छेदहेतुत्वमप्राप्यकारित्वं तच्चानिसृतानुक्तार्थावग्रहादिहेतोः स्पर्शनादेरस्तीति केचित्॥ तन्नानिसृतभावस्यानुक्तस्यापि च कैश्चन। सूक्ष्मैरंशैः परिप्राप्तस्याक्षैस्तैरवबोधनात् // 40 // शीघ्र अवग्रह हो जाना, शीघ्र ही ईहाज्ञान हो जाना आदि के समान अक्षिप्र के अवग्रह, ईहा आदि ज्ञान भी हो जाते हैं, क्योंकि उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, इन तीन अवयवात्मक वस्तु की प्रमाणों से सिद्धि है। ___ "ज्ञेय पदार्थों के साथ सम्बन्ध कर प्रत्यक्षज्ञान कराने वाली स्पर्शन इन्द्रिय, रसना इन्द्रिय, घ्राण इन्द्रिय और कर्ण इन्द्रियों के द्वारा अनिसृत वस्तु के और अनुक्त पदार्थ के साथ सम्बन्ध नहीं हो सकता है अतः प्राप्यकारी इन चार इन्द्रियों द्वारा अनिसृत, अनुक्त अर्थ के अवग्रह आदि नहीं हो सकता। यदि स्पर्शन, रसना, घ्राण, श्रोत्र इन्द्रियों के द्वारा अनिसृत, अनुक्त के अवग्रह आदि ज्ञान मान लिये जायेंगे तो वे चारों इन्द्रियाँ चक्ष के समान अप्राप्यकारी हो जाएंगी। इस प्रकार कोई एक वैशेषिक कह रहा है॥३९॥ . वैशेषिक कहते हैं कि विषयों से सम्बन्ध कर ज्ञान कराने वाली प्राप्यकारी स्पर्शन, जीभ, नाक, इन चार इन्द्रियों के द्वारा अनिसृत, अनुक्त अर्थ के अवग्रह आदिक ज्ञान होना असिद्ध ही है क्योंकि इनसे अवग्रह आदि होने में विरोध है। जो प्राप्यकारी हैं वे अनिसृत, अनुक्त को नहीं जान सकते हैं और जो अनिसृत, अनुक्त अर्थों को जान रही हैं, वे सम्बन्धित विषयों को प्राप्त कर प्राप्यकारी नहीं बन सकती हैं। __उन अनिसृत अनुक्त अर्थों के अवग्रह आदि ज्ञान उपपत्ति की कारणभूत चार इन्द्रियाँ चक्षु के समान प्राप्यकारी नहीं हो सकतीं। अर्थात्-चक्षु के समान चार इन्द्रियाँ भी अप्राप्यकारी रहेंगी। चक्षु को दूरवर्ती 'अप्राप्त अर्थ के परिच्छेद करने का हेतुपना ही चक्षु को अप्राप्यकारित्व है और वह अप्राप्यकारीपना अनिसृत अनुक्त अर्थों के अवग्रह आदि ज्ञानों की कारणभूत स्पर्शन आदि इन्द्रियों के भी स्थित है। ऐसी दशा में चार इन्द्रियों को भी अप्राप्यकारीपना प्राप्त होता है इस प्रकार कोई कहते हैं।” अब आचार्य उत्तर देते हैं कि - यह कहना उचित नहीं है क्योंकि अनिसृत पदार्थ और अनुक्त पदार्थों की भी उनके सूक्ष्म अंशों के द्वारा प्राप्तिरूप सम्बन्ध हो जाता है। तभी तो प्राप्त विषय का उन स्पर्शन, रसन, घ्राण, श्रोत्र इन्द्रियों के द्वारा अवग्रह आदि रूप ज्ञान होता है। ___भावार्थ - बहुत दूर रखी हुई अग्नि को हम स्पर्शन इन्द्रिय से छूकर जान लेते हैं। यहाँ अग्नि के चारों ओर फैले हुए स्कन्ध पुद्गल उस अग्नि के निमित्त से उष्ण हो गये हैं। अग्नि से जली हुई लकड़ी जैसे अग्नि कही जाती है, वैसे ही अभेद दृष्टि से वे उष्णस्कन्ध अग्निस्वरूप माने जाते हैं अत: सूक्ष्म अंशों के द्वारा दूर की अग्नि को ही छूकर हमने यहाँ से स्पर्शन किया है। इसी प्रकार दूर कूटी जा रही खटाई या कुटकी का सूक्ष्म अंशों से रसना द्वारा संसर्ग होकर ही रासन प्रत्यक्ष होता है। कपूर आदि दूर रहते हुए भी कपूर के पारिणामिक छोटे-छोटे अंशों को नासिका द्वारा प्राप्त कर ही अनिसृत पदार्थ की गन्ध को सूंघा जाता है।