________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 316 निसृतोक्तमथैवं स्यात्तस्येत्यपि न शक्यते। सर्वाप्राप्तिमवेक्ष्यैवानिसृतानुक्ततास्थितेः॥४१॥ न हि वयं कात्स्न्येनाप्राप्तिमर्थस्यानिसृतत्वमनुक्तत्वं वा. ब्रूमहे यतस्तदवग्रहादिहेतोरिंद्रियस्याप्राप्यकारित्वमायुज्यते। किं तर्हि / सूक्ष्मैरवयवैस्तद्विषयज्ञानावरणक्षयोपशमरहितजनावेद्यैः कैश्चित् प्राप्तानवभासस्य चानिसृतस्यानुक्तस्य च परिच्छे दे प्रवर्तमानमिंद्रियं नाप्राप्यकारि स्याच्चक्षुष्वेवमप्राप्यकारित्वस्याप्रतीतेः। कथं तर्हि चक्षुरनिंद्रियाभ्यामनिसृतानुक्तावग्रहादिस्तयोरपि प्राप्यकारित्वप्रसंगादिति चेन्न, योग्यदेशावस्थितेरेव. दूरवर्ती पौद्गलिक शब्द की परिणति द्वारा फैलकर छोटे-छोटे अवयवों करके कान तक आ जाने पर ही श्रावण प्रत्यक्ष होता है अत: चार इन्द्रियों के प्राप्यकारीपना होते हुए भी अनिसृत और अनुक्त अर्थों के अवग्रह आदिक ज्ञान सिद्ध हो जाते हैं॥४०॥ ___ इस प्रकार कहने पर तो वस्तु का ज्ञान निसृत और उक्त ही है अर्थात् इन्द्रियों द्वारा जब सूक्ष्म अंश सम्बन्धित कर लिये गये हैं, तब तो वह ज्ञान निसृत और उक्त अर्थ का ही कहा जाता है। ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए क्योंकि सम्पूर्ण अंशों की अप्राप्ति का विचार करके ही अनिसृत और अनुक्त की व्यवस्था की गयी है॥४१॥ ___हम स्याद्वादी सम्पूर्णरूप से प्राप्ति नहीं होने को अर्थ का अनिसृतपना अथवा अनुक्तपना नहीं कहते हैं, जिससे कि सूक्ष्म अंशों से सम्बन्धित किन्तु पूर्ण अवयवों से नहीं प्राप्त उन अर्थों के अवग्रह आदि ज्ञानों की कारण स्पर्शन आदि इन्द्रियों को अप्राप्यकारीपन का आयोजन किया जाए। शंका : तो क्या कहते हैं? समाधान : सूक्ष्म अवयवों को विषय करने वाले ज्ञानावरण क्षयोपशम से रहित जीवों के द्वारा नहीं जानने योग्य ऐसे कितने ही छोटे-छोटे अवयवों द्वारा प्राप्त और अब तक नहीं प्रतिभास किये गए अनिसृत अनुक्त अर्थ के परिच्छेद करने में प्रवर्त इन्द्रियाँ अप्राप्यकारी नहीं हैं, क्योंकि चक्षु में इस प्रकार का अप्राप्यकारी प्रतीत नहीं होता है। ___ भावार्थ : सूक्ष्म और स्थूल अंश या मूलपदार्थ के साथ सभी प्रकार सम्बन्ध न करके चक्षु असम्बद्ध अर्थ को जानती है अत: चक्षु में अप्राप्यकारीपन है। सूक्ष्म अंशों से प्राप्ति होकर पदार्थ ज्ञान कराने वाला कल्पित अप्राप्यकारीपना चक्षु में नहीं है। प्रकरण में सूक्ष्म अवयवों से प्राप्ति होकर स्पर्शन आदि इन्द्रियों से अनिसृत अर्थ का अवग्रह किया गया है अत: चार इन्द्रियाँ अप्राप्यकारी नहीं हैं। वे सूक्ष्म अवयव सभी सामान्य जीवों द्वारा नहीं जाने जाते हैं अत: अनिसृत या अनुक्त अर्थ का वह अवग्रह किसी विशिष्ट ज्ञानी के माना गया है। वैशेषिक कहता है - चक्षु और मन के द्वारा अनिसृत और अनुक्त अर्थ के अवग्रह आदि ज्ञान कैसे हो सकते हैं? क्योंकि ऐसा मानने पर उन चक्षु और मन को भी प्राप्यकारीपन का प्रसंग आएगा। अर्थात् : सूक्ष्म अवयवों के साथ प्राप्ति की विवक्षा करने पर चक्षु और मन द्वारा अवग्रहीत अर्थ के भी प्राप्यकारीपन हो जायेगा। जैनाचार्य कहते हैं - ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि योग्य देश में अवस्थित हो जाने को यहाँ प्राप्तिपद से कहा गया है। अर्थात् इन्द्रिय और अर्थों का योग्यदेश में स्थित रहना प्राप्ति माना गया है। पदार्थ के दूर रहते हुए भी चक्षु और मन का योग्यदेशपना बन जाता है किन्तु शेष चार