________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 306 स्वतो बह्वर्थनिर्भासिज्ञानानां बहुता गतिः। नान्योन्यमनुसंधानाभावात्प्रत्यात्मवर्तिनाम् // 18 // . तत्पृष्ठजो विकल्पश्शेदनुसंधानकृन्मतः। सोपि नानेकविज्ञानविषयस्तावके मते // 19 // बह्वर्थविषयो न स्याद्विकल्पः कथमन्यथा। स्पष्टः परम्परायासपरिहारस्तथा सति // 20 // यथैव बह्वर्थज्ञानानि बहून्येवानुसंधानविकल्पस्तत्पृष्ठजः स्पष्टो व्यवस्यति तथा स्पष्टो व्यवसाय: सकृद्बहून् बहुविधान् वा पदार्थानालंबतां विरोधाभावात्। परंपरया शश्वदेवं परिहतं स्यात्ततो झटिति बह्वाद्यर्थस्यैव प्रतिपत्तेः॥ एवं बहुत्वसंख्यायामेकस्यावेदनं न तु। संख्येयेषु बहुष्वित्ययुक्तं केचित्प्रपेदिरे // 21 // बना रहेगा। तथा इससे महती अनवस्था हो जायेगी॥१६-१७॥ बहुत अर्थों को प्रकाशित करने वाले अनेक ज्ञानों का बहुतपना स्वत: ही जान लिया जाता है। ऐसा. . कहना ठीक नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर प्रत्येक अपने-अपने स्वरूप में रहने वाले उन ज्ञानों का परस्पर में प्रत्यभिज्ञानरूप अनुसंधान नहीं हो सकेगा। किन्तु, एक जीव के अनेक ज्ञानों का अनुसंधान हो रहा है, जैसे कि स्पर्श इन्द्रिय से जाने गये पदार्थ को मैं देख रहा हूँ, देखे हुए पदार्थ का ही स्वाद ले रहा हूँ, इत्यादि ज्ञानों के परस्पर में अनुसंधान होते हैं // 18 // उन बहुत से ज्ञानों के पीछे होने वाला विकल्पज्ञान यदि उन ज्ञानों के अनुसंधान को करने वाला माना जायेगा तो वह भी तुम्हारे मत में अनेक विज्ञानों को विषय करने वाला नहीं माना गया है। एक . विकल्पज्ञान भी एक ही ज्ञान को जान सकेगा। अन्यथा यदि प्रत्येक विषय के लिए प्रत्येक ज्ञान के सिद्धान्त को छोड़कर एक विकल्पज्ञान द्वारा बहुत ज्ञानों का विषय कर लेना मान लेंगे, तब तो विकल्पज्ञान बहुत अर्थों को विषय करने वाला कैसे नहीं होगा? अपितु अनेक पदार्थों को जानने वाला विकल्प स्पष्ट दिख रहा है। ऐसा मानने पर परम्परा से अत्यन्त कठिन परिश्रम का परिहार भी हो जाता है। अर्थात् एक ज्ञान स्व को स्पष्टरूप से जानता हुआ अनेक अर्थों को साक्षात्जान रहा है, इसमें कोई बाधक प्रमाण नहीं है॥१९२०॥ उन ज्ञानों के पीछे अनुसंधान करने वाला विकल्प जैसे ही बहुत अर्थों को जानने वाले बहुत ज्ञानों को स्पष्ट होता हुआ निर्णय कर लेता है, उसी प्रकार स्पष्ट अवग्रह आदिरूप व्यवसाय भी एक ही बार में बहुत से अथवा बहुत प्रकार के पदार्थों को विषय कर लेता है, इसमें विरोध का अभाव है, और इस प्रकार ज्ञानों को जानने के लिए ज्ञान और उनको भी मानने के लिए पुनः ज्ञान, इस परम्परा के कठिन श्रम का निराकरण हो जाता है, तथा शीघ्र ही बहु आदि अर्थों की प्रतिपत्ति हो जाती है अत: एक ज्ञान भी अनेक और अनेक प्रकार के अर्थों को जान सकता है इसमें कोई बाधा नहीं आती है। कोई कहता है कि एक ज्ञान के द्वारा बहुत्व नाम की एक संख्या में आवेदन करा दिया जाता है। किन्तु गिनने योग्य संख्या वाले बहुत अर्थों में ज्ञप्ति नहीं कराई जाती है। जैनाचार्य कहते हैं कि उनका यह कहना युक्तिरहित है क्योंकि बहुत्व नाम की संख्या से विशिष्ट अनेक संख्या करने योग्य अर्थों में एक बहुज्ञान की प्रवृत्ति देखी जाती है अतः एक ज्ञान द्वारा बहुत्व संख्या को जानने वाले वादी को बहुत्व संख्या से