________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 310 चित्रं रूपमिति ज्ञानमेव न प्रतिहन्यते। रूपेप्यनेकरूपत्वप्रतीतेस्तद्विशेषतः॥२७॥ ननु रूपं गुणस्तस्य कथमनेकस्वभावत्वं विरोधात्। नैतत्साधु यतःगुणोनेकस्वभावः स्याद्र्व्यवन्न गुणाश्रयः। इति रूपगुणेनेकस्वभावे चित्रशेमुषी // 28 // न हि गुणस्य निर्गुणत्ववनिर्विशेषत्वं रूपे नीलनीलतरत्वादिविशेषप्रतीतेः / प्रतियोग्यपेक्षस्तत्र विशेषो न तात्त्विक इति चेन्न, पृथक्त्वादेरतात्त्विकप्रसंगात्। पृथक्त्वादेरनेकद्रव्याश्रयस्यैवोत्पत्तेर्न प्रतियोग्यपेक्षत्वमिति चेन्न, तथापि तस्यैकपृथक्त्वादिप्रतियोग्यपेक्षया व्यवस्थानात् / सूक्ष्मत्वाद्यपेक्षैकद्रव्याश्रयमहत्त्वादिवत् . समाधान : इस प्रकार शंका होने पर आचार्य कहते हैं- “यह चित्ररूप है" इस प्रकार के ज्ञान का प्रतिघात नहीं किया जाता है। द्रव्य के समान रूपगुण में भी अनेक स्वभावपना प्रतीत हो रहा है। अर्थात्स्याद्वादसिद्धान्तानुसार द्रव्य, गुण, पर्यायों में भी अनेक स्वभाव माने गये हैं। अपने-अपने उन विशेषों की अपेक्षा से रूप, रस आदि गुण या पर्यायें भी अनेक स्वभाव वाली होकर चित्र कही जा सकती हैं // 27 // शंका : रूप तो गुण है। उस गुण का अनेक स्वभावसहितपना कैसे माना जा सकता है? क्योंकि रूप गुणों में अनेक स्वभाव मानने में विरोध उत्पन्न होता है। अर्थात्-अनेक गुण और पर्यायों का धारक द्रव्य तो अनेक स्वभाववाला हो सकता है, किन्तु एक गुण में या एक-एक पर्याय में पुनः अनेक स्वभाव नहीं रह सकते हैं। समाधान : यह कहना श्रेष्ठ नहीं है क्योंकि सिद्धांत इस प्रकार व्यवस्थित है। अनंतगुणों का समुदाय ही द्रव्य है अतः अभिन्न होने के कारण द्रव्य के समान गुण भी अनेक स्वभाव से सहित होते हैं किन्तु “द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः" इस सूत्रानुसार वह गुण अन्य गुणों का आश्रय नहीं है। इस प्रकार अनेक स्वभाव वाले रूप गुण में चित्रविचित्र ऐसी प्रमाबुद्धि हो जाना समुचित ही है॥२८॥ गुण का अन्य गुणों से रहितपना जैसे अभीष्ट है, वैसा विशेष स्वभावों से रहितपना इष्ट नहीं है, क्योंकि रूपगुण में यह नीला है, उससे भी अधिक नीला वस्त्र है। यह नील रंग उस वस्त्र से भी अत्यधिक नीला है, इत्यादि प्रकार के विशेषों की प्रतीति होती है। शंका : उस रूप गुण में प्रतियोगियों की अपेक्षा से अनेक विशेष दीख रहे हैं वे अनेक विशेष वास्तविक नहीं हैं। समाधान : ऐसा नहीं है। क्योंकि इस प्रकार कहने पर तो पृथक्त्व, विभाग, द्वित्व, त्रित्व, संख्या आदि को भी अवस्तुभूत होने का प्रसंग आएगा। अर्थात्-दूसरे पदार्थ की अपेक्षा से ही किसी वस्तु में पृथपना नियत किया जाता है क्योंकि दोपना, तीनपना आदि संख्यायें अन्य पदार्थों की अपेक्षा से गिनी जाती हैं। अत: अन्य पदार्थों के निमित्त से उत्पन्न हुए नैमित्तिक धर्म को वस्तु स्वभाव स्वीकार नहीं करने पर पुद्गल के निमित्त से होने वाले जीवके, राग, द्वेष, मिथ्यात्व आदि परिणाम भी वास्तविक नहीं हो सकते। पृथक्त्व, विभाग, संयोग आदि तो अनेक द्रव्यों के आश्रय से उत्पन्न होते हैं अतः वे प्रतियोगियों की अपेक्षा नहीं रखते हैं। इस प्रकार वैशेषिक का कहना ठीक नहीं है क्योंकि पृथक्त्व आदि की व्यवस्था एक दूसरे द्रव्य के पृथक्पन आदि प्रतियोगियों की अपेक्षा से ही व्यवस्थित रहती है। जैसे सूक्ष्मत्व, ह्रस्वत्व