________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 294 तदाक्षवेदनं च स्यात्समनंतरकारणम् / मनोध्यक्षस्य तस्यैव वैलक्षण्याविशेषतः॥४८॥ प्रत्यक्षत्वेन वैशद्यवस्तुगोचरतात्मना। सजातीयं मनोध्यक्षमक्षज्ञानेन चेन्मतम् // 49 // स्मरणं संविदात्मत्वसंतानैक्येन वस्तथा। किन्न सिद्ध्येद्यतस्तस्य तत्रोपादानकारकम् // 50 // अन्यथा न मनोध्यक्षं स्मरणेन सलक्षणं। अस्योपादानतापायादित्यनर्थककल्पनम् // 51 // स्मरणाक्षविदोभिन्नौ संतानौ चेदनर्थकम् / मनोध्यक्षं विनाप्यस्मात्स्मरणोत्पत्तिसंभवात् // 52 // अक्षज्ञानं हि पूर्वस्मादक्षज्ञानाद्यथोदियात्। स्मृतिः स्मृतेस्तथानादिकार्यकारणतेदृशी // 53 // संतानैक्ये तयोरक्षज्ञानात्स्मृतिसमुद्भवः। पूर्वं तद्वासनायुक्तादक्षज्ञानं च केवलात् // 54 // अव्यवहित पूर्ववर्ती इन्द्रियज्ञान से ही हो सकता है, पूर्ववर्ती इन्द्रिय ज्ञान ही उसका कारण हो सकता है, क्योंकि उसीके समान विलक्षणपना विशेषतारहित रूप से रहता है॥४७-४८॥ .. परमार्थवस्तु को विशदरूप से विषय कर लेने वाला प्रत्यक्ष की अपेक्षा मानस प्रत्यक्ष भी इन्द्रियजन्य ज्ञान की समान जाति वाला है-ऐसा मानने पर तो तुम्हारे (बौद्धों के) जैसे इन्द्रियप्रत्यक्ष और मानसप्रत्यक्ष को प्रत्यक्ष की अपेक्षा से सजातीय मान लिया जाता है, तो उसी प्रकार ज्ञानस्वरूप संतान के एकत्व की अपेक्षा से स्मरण भी इन्द्रिय ज्ञान के साथ समान लक्षण वाला सजातीय क्यों नहीं सिद्ध होगा? अतः उस इन्द्रियज्ञान को उस स्मरण में या ईहा ज्ञान में उपादान कारणपना बन ही जाता है। अर्थात् स्मरण या ईहा का उपादान कारण इन्द्रिजन्य ज्ञान हो सकता है। क्योंकि ज्ञानपने की अपेक्षा उनमें संजातीयता है॥४९-५०।। अन्यथा (उक्त प्रकार से सजातीयपने को यदि स्वीकार नहीं किया जाता है तो) स्मरण के साथ सजातीय मानस प्रत्यक्ष नहीं हो सकेगा, ऐसी दशा में इस मानस प्रत्यक्ष को स्मरण की उपादान कारणता का अभाव तो आएगा, अत: इन्द्रियज्ञान और स्मरण के बीच में मानस प्रत्यक्ष की कल्पना करना व्यर्थ है। अर्थात् इन्द्रियज्ञान से अव्यवहित काल में उपादेयभूत स्मरण ज्ञान उत्पन्न हो जाता है बीच में मानसिक प्रत्यक्ष की कल्पना करना व्यर्थ है॥५१॥ ___यदि स्मरणज्ञान और इन्द्रियज्ञान दोनों भिन्न-भिन्न सन्तान हैं तब तो मानस प्रत्यक्ष की कल्पना करना व्यर्थ है, क्योंकि इस मानस प्रत्यक्ष के बिना भी स्मरण ज्ञान की उत्पत्ति होना सम्भव है। जिस प्रकार इन्द्रियजन्य ज्ञान अपने पहले इन्द्रियज्ञानरूप उपादान से उत्पन्न हो जाता है, उसी प्रकार स्मृतिज्ञान भी पहले के स्मरणरूप उपादान से उत्पन्न हो जायेगा। इस प्रकार की कार्यकारणता बौद्ध मान्यतानुसार अनादि काल से चली आ रही है।५२-५३॥ यदि बौद्ध उन इन्द्रियज्ञान और स्मरणज्ञान की एकसन्तान स्वीकार करता है तो इन्द्रियज्ञान स्वरूप उपादान से स्मृति की उत्पत्ति हो सकती है। वासनारहित केवल पूर्व के अक्षज्ञान से इन्द्रियज्ञान उत्पन्न होगा, अर्थात् पूर्वकाल की उसकी वासना से सहित विशिष्ट अक्षज्ञान से स्मरणज्ञान उत्पन्न हो जायेंगा // 54 //