________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 298 अवग्रहगृहीतार्थभेदमाकांक्षतोक्षजः। स्पष्टोवायस्तदावारक्षयोपशमतोत्र तु॥६२॥ संशयो वा विपर्यासस्तदभावे कुतश्चन। तेनेहातो विभिन्नोसौ संशीतिभ्रांतिहेतुतः // 63 // विपरीतस्वभावत्वात्संशयाधनिबंधनं। अवायं हि प्रभाषते केचिद् दृढतरत्वतः // 6 // अक्षज्ञानतया त्वैक्यमीहयावग्रहेण च। यात्यवायः क्रमात्पुंसस्तथात्वेन विवर्तनात् // 65 // विच्छेदाभावतः स्पष्टप्रतिभासस्य धारणा। पर्यंतस्योपयुक्ताक्षनरस्यानुभवात्स्वयम् // 66 // ननु च यत्रैवावग्रहगृहीतार्थस्य विशेषप्रवर्तनमीहायास्तत्रैवावायस्य धारणायाश्च ततो नावायधारणयोः प्रमाणत्वं गृहीतग्रहणादिति पराकूतमनूद्य प्रतिक्षिपन्नाह;में किसी कारण से संशय या विपर्ययज्ञान हो सकता है, अत: संशय और विपर्यय के निमित्तकारण ईहाज्ञान से अवायज्ञान सर्वथा भिन्न है। भावार्थ : मनुष्य का अवग्रह हो जाने पर दक्षिणदेशीय या उत्तरदेशीय की शंका उपस्थित हो जाने पर यह मनुष्य दक्षिणी होना चाहिए, ऐसा ईहाज्ञान उत्पन्न होता है, किन्तु ईहाज्ञान से वह संशय सर्वथा दूर नहीं हो सका है। उत्तरी को दक्षिणी कह दिया गया हो ऐसा विपर्यय हो जाना भी सम्भव है। इस विपर्ययज्ञान का निरास भी ईहा से नहीं हो सका है। किन्तु अवायज्ञान से संशय और विपर्यय दोनों का निरास कर दिया जाता है, अत: अपने-अपने नियत विषयों में अवग्रह, ईहा ज्ञान भी व्यवसायात्मक है॥६२-६३॥ / किसी का कथन है कि संशय, विपर्यय ज्ञानों के विपरीत स्वभाववाला होने से अवायज्ञान संशय आदि ज्ञानों का कारण नहीं है, क्योंकि वह अवायज्ञान अत्यन्त अधिक दृढ़स्वरूप है॥६४॥ इन्द्रियजन्य की अपेक्षा अवग्रह और ईहा के साथ अवायज्ञान एकता को प्राप्त है क्योंकि चेतन आत्मा का क्रम-क्रम से उस प्रकार अवग्रह, ईहा, अवायरूप से परिणमन होता रहता है // 65 // अर्थात्-सामान्य मतिज्ञान की अपेक्षा अवग्रह ईहा अवाय एक ही हैं। अवग्रह आदि ज्ञानों का विच्छेद करने वाले कर्मों के क्षयोपशमरूप अभाव हो जाने से अवग्रह आदि धारणापर्यन्त स्पष्ट प्रतिभासने वाले ज्ञानों का स्वयं वैसा अनुभव हो रहा है अत: अक्षरूप आत्मा या इन्द्रिय को कारण मानकर अवग्रह आदि का आत्मलाभ करना उपयोगी है॥६६॥ शंका : जिस अर्थ को अवग्रह ने गृहीत किया है, उसी गृहीत अर्थ के विशेष अंशों में ईहाज्ञान की प्रवृत्ति होती है अत: ईहाज्ञान तो प्रमाण हो सकता है किन्तु जहाँ ईहाज्ञान की प्रवृत्ति है, वहाँ ही अवायज्ञान की प्रवृत्ति है, उसी में धारणा ज्ञान की प्रवृत्ति होती है अतः अवाय और धारणा को प्रमाणपना नहीं हो सकता है क्योंकि इन दोनों ज्ञानों ने गृहीत विषय को ही ग्रहण किया है। इस प्रकार दूसरे प्रतिवादियों के सचेष्ट कथन का खण्डन करते हुए श्री विद्यानन्द आचार्य कहते हैं समाधान : समीचीन ईहा ज्ञान के द्वारा जाने गये स्वकीय अर्थ में अवाय और धारणाज्ञानों की प्रवृत्ति होती है अतः गृहीत का ग्रहण करने से अवाय और धारणा को यदि प्रमाणपना इष्ट नहीं किया जायेगा, तब तो तुम्हारे (बौद्धों के) यहाँ अनुमान प्रमाण से भी अप्रमाणपन का व्यापार होगा अर्थात्-अनुमान भी