________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 287 ननु दूरे यथैतेषां क्रमशोर्थे प्रवर्तनं / संवेद्यते तथासन्ने किन्न संविदितात्मनाम् // 27 // विशेषणविशेष्यादिज्ञानानां सममीदृशं / वेद्यं तत्र समाधानं यत्तदत्रापि युज्यते // 28 // भावार्थ : पदार्थों का सामान्यरूप से आलोचन करना अवग्रह है, यह इन्द्रियों द्वारा हुआ प्रकृति का विवर्त है। “संकल्प करना” ईहा है। यह भी मन:जन्य प्रकृति का परिणाम है। “यह ऐसा ही है" इस प्रकार अभिमान करना अवाय है, जो कि प्रकृति की अहंकार रूप पर्याय है तथा दृढ़ निर्णय कर लेना धारणा है, यह तो प्रकृति का बुद्धिरूप पहिला परिणमन है। चेतना तो पुरुष का स्वभाव है। इस प्रकार जो भी सांख्य कह रहे हैं, वे भी युक्तिपूर्वक कहने वाले नहीं हैं क्योंकि, उन आलोचन आदि रूप अवग्रह आदि ज्ञानों को स्वसम्वेदनस्वरूप होने के कारण ही आत्मस्वभावपना प्रसिद्ध है। अन्यथा (जड़प्रकृति का धर्म मानने पर तो) उनका स्वसम्वेदन होना विरुद्ध होता है। अर्थात् अचेतन प्रधान का धर्म स्व संवेदनात्मक नहीं हो सकता, जैसे अचेतन की पर्याय घटादि स्वसंवेदनात्मक नहीं है। यह स्वसंवेदन प्रत्यक्षभ्रान्त भी नहीं है, क्योंकि इस प्रत्यक्ष का बाधक प्रमाण कोई उपस्थित नहीं होता है। इसका हम पूर्व प्रकरणों में कथन कर चुके हैं अत: अवग्रह आदि ज्ञान चेतन आत्मा के परिणाम हैं, पर्याय हैं, प्रधान की नहीं। शंका : जिस प्रकार दूरवर्ती पदार्थ में इन अवग्रह आदि ज्ञानों की क्रम-क्रम से प्रवृत्ति होती है। अर्थात् पहले इन्द्रिय और अर्थ की योग्यदेश में अवस्थिति होने पर दर्शन होता है। पश्चात् अवग्रह होता है, अनन्तर आकांक्षारूप ईहा ज्ञान होता है, पुनः अवाय, उसके पश्चात् धारणा ज्ञान होते हैं। उसी प्रकार निकटदेशवर्ती पदार्थ में सम्विदितस्वरूप से माने गये अवग्रह आदिकों की क्रम से होती हुई प्रवृत्ति क्यों नहीं होती है ? समाधान : जैसे विशेषण विशेष्य का या सामान्यविशेष आदि ज्ञानों का क्रम से होना अनुभूत नहीं हो रहा है, इसी प्रकार उनके समान यहाँ भी अवग्रह आदि ज्ञानों की क्रम से प्रवर्तना अनुभव में नहीं आ * रही है। उसमें यदि नैयायिक यह समाधान करें कि उस प्रकार का उन विशेषण-विशेष्य आदि ज्ञानों का क्रम से प्रवर्तना क्वचित् प्रत्यक्ष से, कहीं अनुमान से जाना जा रहा है। __अर्थात् विशेष विशेष्य ज्ञान क्रम से होते हैं, फिर युगपत् होते हैं, ऐसा प्रतीत होता है। वह समाधान तो यहाँ अवग्रह आदि में भी उपयोगी हो जाता है। अर्थात् क्रम से होने वाले अवग्रहादिक युगपत् हुए सरीखे प्रतीत होते हैं // 27-28 // ___तथा कापिल आलोचन, संकल्प, अभिमान, अध्यवसाय को क्रम से होना समझता है। तथा अद्वैतवादियों के यहाँ दर्शन, श्रवण, मनन निदिध्यासन की क्रमप्रवृत्ति जानी गयी है। अनुमान का उपकार करने वाले सम्बन्धस्मरण आदि की क्रम से प्रवर्तना जानी जा रही है। अर्थात् पहले हेतु का दर्शन होता है। पीछे व्याप्ति का स्मरण किया जाता है। पुन: पक्षवृत्तित्व ज्ञान से अनुमान कर लिया जाता है। आगमज्ञान में भी क्रम देखा जाता है। शब्द का श्रोत्र इन्द्रिय से श्रावण प्रत्यक्ष कर संकेत का स्मरण करते हुए और इस