________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 86 दृष्टादृष्टनिमित्तानां वैचित्र्यादिह देहिनाम् / जायते क्वचिदभ्यासोऽनभ्यासो वा कथंचन // 144 // दृष्टानि निमित्तान्यभ्यासस्य क्वचित्पौन:पुन्येनानुभवादीनि तद् ज्ञानावरणवीर्यांतरायक्षयोपशमादीन्यदृष्टानि विचित्राण्यभ्यास एव स्वहेतुवैचित्र्यात् जायते, अनभ्यासस्य च सकृदनुभवादीन्यनभ्यासज्ञानावरणक्षयोपशमादीनि च / तद्वैचित्र्याद्वैचित्र्येऽभ्यासोऽनभ्यासश्च जायते। ततः युक्ता स्वतः परतश्च प्रामाण्यव्यवस्था / तत्प्रसिद्धेन मानेन स्वतोसिद्धस्य साधनम् / प्रमेयस्य यथा तद्वत्प्रमाणस्येति धीधनाः॥१४५॥ न हि स्वसंवेदनवदभ्यासदशायां स्वतः सिद्धेन प्रमाणेन प्रमेयस्य स्वयमसिद्धस्य साधनमनुरुध्यमानैरनभ्यासदशायां स्वयमपि सिद्धस्य प्रमाणस्य तदपाकर्तुं युक्तं, सिद्धेनासिद्धस्य साधनोपपत्तेः। ततः सूक्तं संति प्रमाणानीष्टसाधनादिति // तथाहि-इस संसार में कुछ देखे हुए कारण ओर कतिपय नहीं देख सकने योग्य परोक्ष निमित्त कारणों की विचित्रता से प्राणियों के किसी परिचित विषय में अभ्यास और किसी अपरिचित विषय में अनभ्यास कैसे न कैसे हो ही जाता है॥१४४॥ किसी विषय में अभ्यास के दृष्ट कारण पुनः पुन: अनुभव होना आदि है तथा उस विषय संबंधी ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्मों का क्षयोपशम होना आदि अंतरंग कारण, बहिरंग इन्द्रियों द्वारा नहीं दिखते हैं, अर्थात् अदृष्ट हैं। ये दृष्ट-अदृष्ट विचित्र कारण भी अभ्यास होने पर अपने कारणों की विचित्रता से बन जाते हैं / तथा अनभ्यास के भी दृष्ट निमित्तकारण तो एक बार अनुभव करना (उपेक्षा रखना, अन्यमनस्क होना) आदि हैं, और अनभ्यास के अदृष्ट कारण ज्ञानावरण और अन्तराय कर्मों का क्षयोपशम, (उद्धतपना, कषाय का सद्भाव) आदि है। उनके भी कारणों की विचित्रता से उन कारणों में विचित्रता होने पर किसी जीव का किसी विषय में अभ्यास और अनभ्यास होना बन जाता है अतः अभ्यास दशा में स्वत: और अनभ्यास दशा में परतः प्रामाणिक ज्ञान की व्यवस्था होना युक्त है। तथा स्वतः असिद्ध प्रमेय की स्वतंत्र प्रसिद्ध प्रमाण के द्वारा जिस प्रकार सिद्धि की जाती है, उसी क समान अनभ्यास दशा में प्रमाण की सिद्धि भी अभ्यास के प्रसिद्ध प्रमाण से कर ली जाती है। इस प्रकार बुद्धिधन आचार्य कहते हैं // 145 // स्वसंवेदन प्रत्यक्ष के समान अभ्यास दशा में स्वतः प्रसिद्ध प्रमाण के द्वारा स्वयं असिद्ध प्रमेय की सिद्धि को अनुरोध कर कहने वाले वादियों के द्वारा अनभ्यास दशा में स्वयं असिद्ध प्रमाण की सिद्धि भी प्रसिद्ध प्रमाण से हो जाती है। उसका खण्डन करना उचित नहीं है।क्योंकि असिद्ध पदार्थ की सिद्धि प्रसिद्ध तत्त्व से होती है अत: यह अनुमान बहुत अच्छा कहा कि प्रमाण है, क्योंकि इष्ट पदार्थों की सिद्धि हो रही है। (यहाँ तक अद्वैतवादी या शून्यवादी के सम्मुख प्रमाणतत्त्व की सिद्धि का प्रकरण समाप्त हुआ)