________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 260 व्याप्तिः साध्येन निर्णीता हेतोः सार्धं प्रसाध्यते। तदेवं व्यवहारेपीत्यनवद्यं न चान्यथा // 387 // धर्मिणोप्यप्रसिद्धस्य साध्यत्वाप्रतिघातितः। अस्ति धर्मिणि धर्मस्य चेति नोभयपक्षता // 388 // तद्यत्र साधनाद्बोधो नियमादभिजायते। स तस्य विषयः साध्यो नान्यः पक्षोस्तु जातुचित् // 389 // तदेवं शक्यत्वादिविशेषणसाध्यसाधनाय कालापेक्षत्वेन व्यवस्थापिते अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणे साधने च प्रकृतमभिनिबोधलक्षणं व्यवस्थितं भवति। यः साध्याभिमुखो बोधः साधनेनानिंद्रियसहकारिणा नियमितः सोभिनिबोधः स्वार्थानुमानमिति। कश्चिदाह; है, उसी प्रकार व्यवहार काल में भी साध्य वही रहेगा। दूसरे प्रकार से व्यवस्था करना ठीक नहीं है। निर्णीत को व्यवहार में लाना ही निर्दोष मार्ग है॥३८६-३८७।। अतः अप्रसिद्ध धर्मी का साध्यपना प्रतिहत नहीं होता है। अर्थात्-अप्रसिद्ध धर्मी का भी साध्यपना सुरक्षित है और धर्मी के होने पर धर्म का अस्तित्व है अत: धर्मी और धर्म दोनों के समुदाय को पक्ष कहना ठीक नहीं है॥३८८॥ अतः जहाँ अविनाभाव नियम के अनुसार साधन से साध्य का बोध हो जाता है, साध्य उस अविनाभावी हेतु का ज्ञेय विषय है, उससे पृथक् पक्ष कदाचित् भी नहीं हो सकता है॥३८९॥ अतः यहाँ तक हेतु, साध्य और पक्ष का विशेष विचार किया गया है। शक्यपन आदि विशेषणों से युक्त साध्य को साधने के लिए प्रयोगकाल की अपेक्षा अन्यथानुपपत्ति एक लक्षणवाले हेतु की व्यवस्था करने पर यह प्रकरणप्राप्त अनुमान स्वरूप अभिनिबोध का लक्षण करना व्यवस्थित हो जाता है। अर्थात् इस प्रकरण में सामान्य मतिज्ञान को अभिनिबोध नहीं माना है। किन्तु, अन्यथानुपपत्ति लक्षण वाले हेतु से शक्य, अभिप्रेत, असिद्ध साध्य का ज्ञान कर लेना अभिनिबोध है। ___ मन की सहकारिता को प्राप्त ज्ञापक हेतु के द्वारा साध्य के अभिमुख होकर नियम प्राप्त जो ज्ञान है, वह अभिनिबोध है। “अभि" यानी अभिमुख, नि यानी अविनाभावरूप नियम प्राप्त, बोध यानी ज्ञान है। वह अभिनिबोध स्वार्थानुमान है। यह प्रकरण के अनुसार अभिनिबोध का सिद्धांत लक्षण है। कोई (जैन) कहता है प्रश्न : इन्द्रियों से ग्रहण करने योग्य अर्थ और इन्द्रियों से नहीं ग्रहण करने योग्य अतीन्द्रिय अर्थ के अभिमुख नियमित ज्ञान करना अभिनिबोध माना गया है। किन्तु इन्द्रिय और मन से सहकृत केवल ज्ञापक लिंग से उत्पन्न ज्ञान अभिनिबोध नहीं माना जाता है। अर्थात् ‘मति: स्मृति:' आदि सूत्र में कथित अभिनिबोध का अर्थ स्वार्थानुमान और क्वचित् अभेद दृष्टि से परार्थानुमान है किन्तु सामान्य अभिनिबोध का अर्थ सभी