________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 266 तच्छब्देन परामर्शोनांतरमिति ध्वनेः / वाच्यस्यैकस्य मत्यादिप्रकारस्याविशेषतः॥२॥ मतिज्ञानस्य सामर्थ्याल्लभ्यमानस्य वाक्यतः। तदेव तच्च विज्ञानं नान्यथानुपपत्तितः॥३॥ प्रत्यासन्नत्वादभिनिबोधस्य तच्छब्देन परामर्शः प्रसक्तश्चिंता तस्याः प्रत्यासत्तेरिति न मंतव्यमनांतरमिति शब्देन वाच्यस्य मत्यादिप्रकारस्यैकस्याविशेषतः सामर्थ्याल्लभ्यमानस्य प्रत्यासन्नतरस्य सुखवद्भावात्तच्छब्देन परामर्शोत्पत्तेः स्वेष्टसिद्धेश्च तस्यास्य बाह्यनिमित्तमुपदर्शयितुमिदमुच्यते। किं पुनस्तदित्याह;वक्ष्यमाणं च विज्ञेयमत्रंद्रियमनिंद्रियम् / तद् द्वैविध्यं विधातव्यं निमित्तं द्रव्यभावतः॥४॥ प्रश्न : तत् यह सर्वनाम पद पूर्व में जाने गए विषय का परामर्श करने वाला है, तो फिर यहाँ तत् शब्द से किस परोक्ष पदार्थ का परामर्श किया जाता है,जिसके बहिरंग निमित्त कारणों को दिखलाने के लिए 'तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्' यह सूत्र कहा गया है? उत्तर : इस प्रकार जिज्ञासा होने पर आचार्य उत्तर देते हैं। पूर्वसूत्र में कथित अनर्थान्तर इस शब्द का तत् शब्द के द्वारा परामर्श होता है। पूर्वसूत्र में इति का अर्थ प्रकार कहा गया है अत: मति, स्मृति आदि प्रकार स्वरूप एक ही वाच्य अर्थ का सामान्यरूप से परामर्श कर लिया गया है॥२॥ अर्थात् मति, स्मृति आदि सर्वज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता से उत्पन्न होते हैं। __ प्रश्न : उपर्युक्त सूत्रवाक्य की सामर्थ्य से लभ्यमान मतिज्ञान का तत् शब्द के द्वारा परामर्श होना चाहिए। अर्थात् मति स्मृति इस सूत्र में मतिज्ञान के प्रकारों का ही कथन किया है। मतिज्ञान का नाम निर्देश नहीं है। फिर भी वाक्य की सामर्थ्य से मतिज्ञान ग्रहण किया जाता है अत: वही मतिज्ञानविशेष तत् है। उत्तर : आचार्य कहते हैं कि ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि अव्यवहित पूर्व में उपात्त अनर्थान्तर शब्द ही अन्यथानुपपत्ति होने से ग्राह्य है॥३॥ पूर्व सूत्र द्वारा कथित मति, स्मृति आदि मतिज्ञान के पाँच भेदों में अन्त में कहें गये अभिनिबोध का निकटवर्ती होने से तत् शब्द द्वारा परामर्श होना प्रसंग प्राप्त है, और उस अभिनिबोध के निकटवर्ती होने से चिंता के परामर्श होने का भी प्रसंग आता है। ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि अनन्तरं इस शब्द के द्वारा कथित मति, स्मृति आदि प्रकारों से युक्त मति आदि प्रकाररूप एक का सामान्यरूप से परामर्श होना बन जाता है। वह एक प्रकार ही वाक्य की सामर्थ्य से लभ्यमान है। अनर्थान्तर का वाच्य अत्यन्त निकट भी है अत: सुखपूर्वक उपस्थिति हो जाने के कारण उसका तत् शब्द के द्वारा परामर्श होना बन सकता है। तथा उसी से हमारे अभीष्ट की सिद्धि भी होती है अत: उस मति स्मृति आदि से अनर्थान्तर इस मतिज्ञान के बहिरंग निमित्त कारणों को दिखलाने के लिए यह सूत्र कहा जाता है फिर वे बहिरंग कारण कौन हैं? ऐसी जिज्ञासा होने पर आचार्य कहते हैं यहाँ द्वितीय अध्याय में कथित इन्द्रिय और अनिन्द्रिय को मतिज्ञान का निमित्त कारण जानना चाहिए। द्रव्य इन्द्रिय और भाव इन्द्रिय के भेद से वे इन्द्रियाँ दो प्रकार की हैं, ऐसा जानना चाहिए॥४॥