Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 03
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 279
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 274 ज्ञानस्यालंबनं च स्वाकारार्पणक्षमत्वादिति वचनमयुक्तं समानार्थसमनंतरज्ञानेन व्यभिचारात्। न त्वालंबनत्वेन यो जनकः स्वाकारार्पणक्षमश्च स ग्राह्यो ज्ञानस्य न पुनः समनंतरत्वेनाधिपतित्वेन वा यतो व्यभिचार इति चेदितराश्रयप्रसंगात्। सत्यालंबनत्वेन जनकत्वेर्थस्य ज्ञानालंबनत्वं सति च तस्मिन्नालंबनत्वेन जनकत्वमिति। स्वाकारार्पणक्षमत्वविशेषणं चैवमनर्थकं स्यादालम्बनत्वेन जनकस्य ग्राह्यत्वाव्यभिचारात् / परमाणुना व्यभिचार इत्यपि न श्रेय: परमाणोरेकस्यालंबनत्वेन ज्ञानजनकत्वासंभवात् / संचितालंबना: पंचविज्ञानकाया इति वचनात्। अव्यवहित पूर्वक्षण में ही रहने वाला अर्थ ज्ञान का जनक है, और ज्ञान के लिए अपने आकार को अर्पण करने में समर्थ होने के कारण आलम्बन भी है। इस प्रकार तदुत्पत्ति और ताद्रूप्य दोनों का कथन करना तो युक्तिरहित है, क्योंकि समान अर्थ के अव्यवहित उत्तरवर्ती ज्ञान के द्वारा व्यभिचार आता है। अर्थात् ज्ञान अर्थ का नियामक है। ज्ञान, ज्ञान का व्यवस्थापक नहीं है। दीपक से प्रदीपान्तर की व्यवस्था नहीं कराई जाती है सभी ज्ञान अपने स्वतंत्र नियामक हैं। शंका : जो आलम्बन रूप से ज्ञान का जनक है, और अपने आकार को अर्पण करने में दक्ष है, वह पदार्थ ज्ञान के द्वारा ग्राह्य होता है किन्तु अव्यवहितपूर्व में (ज्ञान के अव्यवहित पूर्वक्षण में) स्थित किसी पदार्थ को ज्ञान की ग्राह्यता प्राप्त नहीं है। तथा ज्ञान के अधिपतित्व द्वारा भी ग्राह्यता नहीं है। अर्थात् जो ज्ञान का सर्वत्र स्वतंत्र अधिष्ठाता है, वह भी ज्ञान का विषय नहीं है जिससे कि समान अर्थ या चक्षु आदि से व्यभिचार हो सकता है। समाधान : इस कथन में तो अन्योन्याश्रय दोष होने का प्रसंग आता है, क्योंकि आलम्बन के द्वारा अर्थ का जनकपना सिद्ध हो जाने पर तो अर्थ को ज्ञान का आलम्बनपना और अर्थ को ज्ञान का आलम्बनपना सिद्ध होने पर आलम्बनत्व के द्वारा जनकत्व सिद्ध होता है अत: यह अन्योन्याश्रय दोष है। अथवा, ज्ञान के विषयभूत अर्थ को ही यदि ज्ञान का जनकपना स्वीकार किया जाता है तो “अपने आकार को ज्ञान के लिए अर्पण करने में सन्नद्ध" यह विशेषण लगाना व्यर्थ होता है क्योंकि ज्ञान के आलम्बन होकर जो पदार्थ जनक हैं वे ग्राह्यपन का व्यभिचार नहीं करते हैं। भावार्थ : ज्ञान का आलम्बन होकर जो ज्ञान का जनक होता है, वह ज्ञान द्वारा ग्राह्य अवश्य होता है। फिर ज्ञान की विषयता का नियम करने के लिए अपने आकार को ज्ञान के लिए समर्पण करने की शक्ति रखना, यह ग्राह्य विषय का विशेषण क्यों लगाया जाता है ? बौद्ध कहते हैं कि यह विशेषण लगाना व्यर्थ नहीं है। अन्यथा परमाणु से व्यभिचार आता है। अर्थात् क्षणिक, असाधारण, परमाणु वस्तुभूत हैं और ज्ञान की उत्पत्ति में आलम्बन होकर जनक हैं किन्तु ज्ञान का विषय नहीं हैं, क्योंकि वे परमाणु ज्ञान के लिए अपने आकारों का समर्पण नहीं कर सकती हैं अतः स्वाकारार्पणक्षम विशेषण देना सफल है। ग्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकार बौद्धों का कथन भी श्रेष्ठ नहीं है, क्योंकि आलम्बन से ज्ञान का जनकपना एक परमाणु के असम्भव है। अनेक परमाणु एकत्रित होकर जब रूपस्कन्ध, वेदनास्कन्ध, विज्ञानस्कन्ध, संज्ञास्कन्ध, संस्कार स्कन्ध-ये विज्ञान के पाँच काय बन जाते हैं, तब ज्ञान के आलम्बन होते हैं। इस प्रकार बौद्ध ग्रन्थों

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