________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 166 ह्यनुमानस्य प्रवृत्तिर्लिंगलिंगिसंबंधनिश्चयात् स चोहात्तस्यापि प्रवृत्तिः स्वार्थसंबंधनिश्चयात् सोप्यनुमानांतरादिति तस्योहांतरात्सिद्धौ क्वेयमनवस्थानिवृत्तिः। यदि पुनरयमूहः स्वार्थसंबंधसिद्धिमनपेक्षमाणः स्वविषये प्रवर्तते तदानुमानस्यापि तथा प्रवृत्तिरस्त्विति व्यर्थमूहपरिकल्पनमिति कश्चित्॥ तन्न प्रत्यक्षवत्तस्य योग्यताबलतः स्थितेः। स्वार्थप्रकाशकत्वस्य क्वान्यथाध्यक्षनिष्ठितिः॥१०३॥ योग्यताबलादूहस्य स्वार्थप्रकाशकत्वं व्यवतिष्ठत एव प्रत्यक्षवत् / न हि प्रत्यक्ष स्वविषयसंबंधग्रहणापेक्षमनवस्थाप्रसंगात्। तथाहिग्राह्यग्राहकभावो वा संबंधोन्योपि कश्चन। स्वार्थे न गृह्यते केन प्रत्यक्षस्येति चिंत्यताम् // 104 // होने पर ही यह हेतु रहता है, साध्य के न होने पर हेतु नहीं रहता है। इसका उत्थापक ज्ञापकों को जानने में निर्विकल्प प्रत्यक्षं का व्यापार नहीं चलता है)।क्योंकि आकार रूप सविकल्प प्रत्यक्षज्ञान के भी सन्निकट वर्तमानकाल के अर्थों के ही ग्राह्यपना है। अर्थात् प्रत्यक्षज्ञान वर्तमान के पदार्थों को ही जानता है, तथा अनुमान से भी ऊह्य पदार्थों के साथ संबंध की ज्ञप्ति नहीं हो पाती है, क्योंकि इसमें अनवस्था दोष का प्रसंग आता है। उस संबंधग्राही अनमान की प्रवत्ति भी हेत और साध्य के सम्बन्ध का निश्चय हो जाने से होती है। संबंध का निश्चय तो तर्क से ही होता है, पुन: उस तर्क की प्रवृत्ति भी अपने जानने योग्य अर्थों के साथ ज्ञापकों का संबंध निश्चय हो जाने से होती है, फिर वह तर्क के उत्पादक संबंध की ज्ञप्ति अन्य अनुमानों से होगी। इसी प्रकार उस अनुमान की अन्य तर्क ज्ञानों से सिद्धि मानी जाएगी, ऐसी दशा में अनवस्था दोष की निवृत्ति कैसे हो सकती है? यदि पुन: यह तर्कज्ञान अपने विषयभूत अर्थों के साथ संबंध के ज्ञान की सिद्धि की अपेक्षा नहीं करता हुआ अपने विषय में प्रवृत्ति करता है, तब तो ऊह के द्वारा संबंध ग्रहण करने की अपेक्षा नहीं रखने वाले अनुमान की ही अपने विषय में प्रवृत्ति हो जायेगी। अत: ऊहज्ञान की एक पृथक् कल्पना व्यर्थ है-ऐसा कोई बौद्ध कहता है। आचार्य कहते हैं कि समाधान - बौद्ध का यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष के समान उस तर्क का भी स्वविषय प्रकाशकपना योग्यता की सामर्थ्य से प्रसिद्ध है अन्यथा (यानी योग्यता की सामर्थ्य को माने बिना) स्व अर्थ प्रकाशकत्व प्रत्यक्षज्ञान की भी व्यवस्था कैसे हो सकेगी?। अर्थात्-स्वावरणों की क्षयोपशमरूप योग्यता द्वारा अपने विषयों का संबंध कर प्रत्यक्षज्ञान जैसे नियत पदार्थों को जान लेता है, उसी प्रकार तर्क अपनी योग्यता से देशान्तर, कालान्तरवर्ती अनेक पदार्थों के संबंध का परोक्ष ज्ञान कर लेता है॥१०३॥ प्रत्यक्ष के समान ऊहाज्ञान का भी स्वार्थ-प्रकाशकत्व अपनी योग्यता की सामर्थ्य से व्यवस्थित ही है। प्रत्यक्षज्ञान अपने जानने योग्य विषयों के साथ संबंध के ग्रहण की अपेक्षा नहीं रखता है। यदि प्रत्यक्ष की उत्पत्ति में भी संबंध का ग्रहण होना मानोगे तो अनवस्था का प्रसंग आयेगा। इसको ग्रन्थकार स्पष्ट करते प्रत्यक्ष का अपने विषय के साथ ग्राह्य ग्राहक भाव संबंध या विषयविषयीभाव संबंध अथवा और कोई तदुत्पत्ति, तदाकार संबंध है? वह सम्बन्ध किस स्वार्थ के द्वारा प्रत्यक्ष ग्रहण किया जाएगा? इसका कुछ समय तक चिंतन करो क्योंकि प्रत्यक्ष के उत्पादक संबंध को प्रत्यक्ष द्वारा जानने पर अनवस्था दोष आता है अर्थात् प्रत्यक्ष उत्पादक सम्बन्ध को प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं जान सकता // 104 //