________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 257 प्रत्यक्षेणाप्रसिद्धत्वाद्धर्मिणामिह कात्य॑तः / अनुमानेन तत्सिद्धौ धर्मिसत्ताप्रसाधनं // 370 // परप्रसिद्धितस्तेषां धर्मित्वं हेतुधर्मवत् / ध्रुवं तेषां स्वतंत्रस्य साधनस्य निषेधकं // 371 // प्रसंगसाधनं वेच्छेत्तत्र धर्मिग्रहः कुतः। इति धर्मिण्यसिद्धेपि साधनं मतमेव च // 372 // व्याप्यव्यापकभावे हि सिद्धे साधनसाध्ययोः / प्रसंगसाधनं प्रोक्तं तत्प्रदर्शनमात्रकं // 373 // अथ निःशेषशून्यत्ववादिनं प्रति तार्किकैः। विरोधोद्भावनं स्वेष्टे विधीयतेति संमतं // 374 // सम्पूर्ण पदार्थों के ज्ञान की सिद्धि करोगे तब तो यहाँ धर्मियों की सत्ता को प्रसिद्ध करना आवश्यक कार्य होगा। अर्थात्-क्षणिकत्व को साधने वाला अनुमान गौण हो जायेगा // 369-370 // पक्षधर्मत्व हेतु के समान उन धर्मियों की अन्यवादियों के यहाँ प्रसिद्धि हो जाने से उनको धर्मीपना दृढ़रूप से निश्चित है। ऐसा कहने वाले उन बौद्धों के यहाँ स्वतंत्र नामके साधन का निषेध करने वाला यह प्रसंग साधन इष्ट है। किन्तु वहाँ भी धर्मी का ग्रहण कैसे होगा वा किस प्रमाण से होगा? . भावार्थ : अनुमान के द्वारा प्रकृत साध्य को साधने वाले हेतु दो प्रकार के होते हैं। एक स्वतंत्र साधन, दूसरा प्रसंग साधन। जिसमें पक्ष, हेतु, दृष्टांत विद्यमान रहते हैं, वहाँ पर व्याप्ति को स्मरण करा कर साध्य को साधने वाला हेतु स्वतंत्र साधन कहा जाता है, और पर की दृष्टि से वादी को अनिष्ट का आपादन करा देने वाला हेतु प्रसंगसाधन कहलाता है। जैसे यह पर्वत अग्नियुक्त है-धूम होने से या शब्द परिणामी है-कृतक होने से, इत्यादि हेतु अपने साध्य को साधने में स्वतंत्र है। प्रसंग साधन हेतु से कोई परोक्ष पदार्थ सिद्ध नहीं हो सकता है। उस प्रसंग साधन हेतु से केवल अज्ञान की निवृत्ति होती है। इस प्रकार धर्मी का ग्रहण करना कठिन है। तभी तो सिद्धान्त में धर्मी के अप्रसिद्ध होने पर भी सद्धेतु मान ही लिया गया है। अतः साध्य के प्रसिद्ध होने का आग्रह करना प्रशस्त नहीं है॥३७१-३७२।। साधन और साध्य के व्याप्य व्यापकभाव के सिद्ध हो जाने पर प्रसंग साधन कहना उसका प्रदर्शन मात्र है॥३७३॥ अब आचार्य कहते हैं कि सम्पूर्ण पदार्थों को शून्य कहने वाले शून्यवादी के प्रति नैयायिकों के द्वारा जो अपने इष्ट विषय में विरोध का उत्थापन किया जाता है, उसमें हम सम्मत हैं। सबसे प्रथम वह शून्यवाद अप्रमाण होने से अकिंचित्कर दीख रहा है। तथा शून्यवाद के प्रमाण से अप्रसाधन (अप्रसिद्ध) होने पर सप्रमाणकता कैसे आ सकती है? अर्थात् जब तक ‘सर्वशून्यं शून्य' इस मंतव्य के प्रमाण से प्रकृष्ट सिद्धि