________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 255 'लौकिकस्याप्रबोध्यत्वे कथमस्तु परीक्षकः। प्रबोध्यस्तस्य यत्नेन क्रमतस्तत्त्वसंभवात् // 363 // प्रतिपाद्यस्ततस्त्रेधा पक्षस्तत्प्रतिपत्तये। संदिग्धादिः प्रयोक्तव्योऽप्रसिद्ध इति कीर्तनात् // 364 // प्रश्न : लौकिक विपर्ययज्ञानी समझाने योग्य नहीं होने पर परीक्षा करने वाला उसको कैसे समझा सकता है ? उत्तर : तत्त्वों की अन्तः प्रविष्ट होकर परीक्षा करने वाला तो कभी किसी विषय में मूर्ख होता है; किसी विषय में विपरीत ज्ञानी होता है / उस परीक्षक को तो क्रम से यत्न करके तत्त्वों की ज्ञप्ति कराना संभव है। अव्युत्पन्न के भेद से प्रतिपाद्य पक्ष तीन प्रकार का है अत: उन तीनों की प्रतिपत्ति कराने के लिए संदिग्ध, विपर्यस्त और अज्ञात अप्रसिद्ध पक्ष वादी के द्वारा प्रयुक्त करना चाहिए। इस प्रकार साध्य के तीन विशेषणों की सफलता का प्रतिपादन करते हुए व्याख्यान किया है॥३६३-३६४॥ भावार्थ : इष्ट, अबाधित और असिद्ध को साध्य कहते हैं। इसका तात्पर्य है कि जो वादी को इष्ट है वही साध्य होता है, अनिष्ट नहीं / इसी प्रकार जो प्रत्यक्षादि किसी प्रमाण से बाधित नहीं है वह साध्य होता है। तथा जो अभीतक सिद्ध न हो वह साध्य होता है क्योंकि असिद्ध को ही सिद्ध किया जाता है। सिद्ध वस्तु को साध्य नहीं बनाया जाता है। इसलिए साध्य के लक्षण में इष्ट, अबाधित और असिद्ध ये तीन विशेषण दिये गये हैं। सभी विशेषण सभी की अपेक्षा से नहीं होते हैं, अपितु कोई विशेषण किसी की अपेक्षा से होता है और कोई विशेषण किसी की अपेक्षा से होता है। साध्य के इन तीन विशेषणों में इष्ट विशेषण वादी की अपेक्षा से है, क्योंकि समझाने की इच्छा वादी को ही होती है अत: जिस साध्य को वह सिद्ध * कर रहा है वह उसको इष्ट होना चाहिए। असिद्ध विशेषण प्रतिवादी की अपेक्षा से है क्योंकि वह समझने का इच्छुक है इच्छा का विषयभूत पदार्थ इष्ट है। संदिग्ध, विपर्यस्त और अव्युत्पन्न पदार्थ ही साध्य होता है। इसको बताने के लिए असिद्ध पद विशेषण दिया गया है। संशय को संदिग्ध कहते हैं; विपरीतज्ञान को विपर्यस्त कहते हैं और जिसका स्वरूप ठीक से निश्चित न हो उसको अव्युत्पन्न कहते हैं। जैसे मार्ग में जाते हुए व्यक्ति का तृण स्पर्श होने पर यह क्या है?'-ऐसा अनध्यवसाय रूप ज्ञान होता है, उसको अव्युत्पन्न कहते हैं। अनिष्ट और प्रत्यक्षादि प्रमाणों से बाधित पदार्थ साध्य नहीं होता, इसको बताने के लिए इष्ट विशेषण दिया जाता है। इस विशेषण से युक्त साध्य को सिद्ध करने वाले हेतुओं से जो ज्ञान होता है वह अनुमान ज्ञान कहलाता है। उस अनुमान ज्ञान को नहीं मानने वालों का खण्डन करके अनुमान ज्ञान को सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। अकिंचित्कर होने से वादी, प्रतिवादी के प्रसिद्ध पक्ष को साध्य कोटि में रखना निरस्त कर दिया गया है अर्थात्-अग्नि उष्ण होती है, जल प्यास को बुझाता है; इत्यादि प्रसिद्ध विषय साध्य नहीं बनाये जाते