________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 205 बाधनाभांवनिश्चय इतीतरेतराश्रयान्न तयोरन्यतरस्य व्यवस्था। यदि पुनरन्यतः कुतश्चित्तद्बाधनाभावनिश्चयात्तदनिश्चयांगीकरणाद्वा परस्पराश्रयपरिहारः क्रियते तदाप्यकिंचित्करत्वं हेतोरुपदर्शयन्नाह;तद्बाधाभावनिर्णीतिः सिद्धा चेत्साधनेन किम् / यथैव हेतोर्वेशस्य बाधासद्भावनिश्चये // 194 // तत्साधनसमर्थत्वादकिंचित्करत्वं तथा वा विरहनिश्चये कुतश्चित्तस्य सद्भावसिद्धेः। सततसाधनाय प्रवर्तमानस्य सिद्धसाधनादपि न साधीयस्तल्लक्षणत्वं / नन्वेवमविनाभावोपि लक्षणं मा भून्निश्चयस्यापि साध्यसद्भावनियमनिश्चयायत्तत्वात् तस्य चाविनाभावाधीनत्वादितरेतराश्रयस्य प्रसंगात् इति चेन्न, अविनाभावनियमस्य हेतौ प्रमाणांतरानिश्चयोपगमादितरेतराश्रयानवकाशात् / ऊहाख्यं हि हो जाने से बाधाओं के अभाव का निश्चय होता है / इस प्रकार अन्योन्याश्रय दोष हो जाने से उन दोनों में से एक की भी व्यवस्था नहीं होती है। यदि फिर नैयायिक अन्य किसी हेतु के द्वारा उन बाधकों के अभाव का निश्चय अथवा आवश्यकता न होने के कारण बाधाओं के अभाव का निश्चय नहीं होना स्वीकार करने से परस्पराश्रय दोष का परिहार किया जाता है तब वह हेतु अकिंचित्कर हो जाता है। इस बात का ग्रन्थकार विशद रूप से निरूपण करते हुए कहते हैं यदि किसी अन्य कारण से उस हेतु के साध्य में बाधाओं के अभाव का निर्णय सिद्ध हो जाता है तो फिर उस ज्ञापक हेतु से क्या लाभ है? जिस प्रकार हेतु के वेश (शरीर) को बाधा देने वालों के असद्भाव का निश्चय हो जाने पर पुनः हेतु के लिए अन्य हेतु देने की आवश्यकता नहीं है। अर्थात् जैसे अग्नि को सिद्ध करने के लिए दिये गये धूम हेतु को साधने के लिए पुन: अन्य हेतु की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि हेतु का निर्बाधित स्वरूप पूर्व में निर्णीत ही है॥१९४॥ .. किन्हीं अन्य हेतुओं को ही बाधाओं के अभाव के निर्णय को साधने में समर्थ होने से प्रकृत में कहा गया हेतु कुछ भी प्रयोजन सिद्धि करने वाला नहीं है (अकिंचित्कर है)। तथा चाहे जिस कारण से बाधाओं के अभाव का निश्चय मानने पर तो किसी अन्य हेतु से उन बाधाओं का सद्भाव भी सिद्ध हो जाएगा। यदि उन कारणों द्वारा निरन्तर बाधाओं के अभाव को साधन करने के लिए प्रवृत्ति करना माना जाएगा तब तो प्रकृत हेतु से सिद्ध पदार्थ का ही साधन हुआ, अतः सिद्धसाधन दोष हो जाने से अबाधित विषयत्व आदि को हेतु का लक्षणपना उपयुक्त नहीं है। शंका : इस प्रकार हेतु का लक्षण अविनाभाव भी नहीं हो सकता है, क्योंकि अविनाभावी हेतु का निश्चय साध्य के सद्भाव होने पर ही हेतुका नियम से होना रूप निश्चय के अधीन है और उस नियम का निश्चय अविनाभाव के अधीन है अतः अन्योन्याश्रयदोष का प्रसंग आता है। समाधान : ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि अविनाभावरूप नियम का हेतु में निश्चय करना अन्य तर्कज्ञान नाम के प्रमाण से स्वीकार किया गया है (वह ऊहाज्ञान अविनाभाव के निश्चय कराने का ज्ञापक कारण है)। उस अविनाभाव के निश्चय करने में प्रत्यक्ष और अनुमान का व्यापर नहीं है। इस बात को हम स्वतंत्ररूप से पूर्व में कह चुके हैं।