________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 243 विभ्रमस्यान्यथा विच्छेदायोगात्॥ अहेतुफलरूपस्य वस्तुनोनुपलंभनम् / द्वेधा निषेध्य तादात्म्येतरस्यादृष्टिकल्पनात् // 311 // तत्राभिन्नात्मनोः सिद्धिर्द्विविधा संप्रतीयते। स्वभावानुपलब्धिश्च व्यापकादृष्टिरेव च // 312 // आद्या यथा न मे दुःखं विषादानुपलंभतः। व्यापकानुपलब्धिस्तु वृक्षादृष्टेन शिंशपा // 313 // कार्यकारणभिन्नस्यानुपलब्धिर्न बुध्यताम्। सहचारिण एवात्र प्रतिषेधेन वस्तुना // 314 // मयि नास्ति मतिज्ञानं सदृष्ट्यनुपलब्धितः। रूपादयो न जीवादौ स्पर्शासिद्धेरितीयताम् // 315 // सैवमनुपलब्धि: पंचविधोक्ता श्रुतिप्राधान्यात्। ननु कारणव्यापकानुपलब्धयोपि श्रूयमाणाः संति। सत्यं / तास्त्वत्रैवांतर्भावमुपयांतीत्याह;कारणव्यापकादृष्टिप्रमुखाश्चास्य दृष्टयः। तत्रांतर्भावमायांति पारंपर्यादनेकधा // 316 // क्योंकि सम्यग्ज्ञान अवश्य ही सम्यक्चारित्र का कारण है। उस सम्यक्ज्ञान का अनुपलम्भ होने से वह ज्ञानाभाव अपनी आत्म संतान में उस सम्यक्चारित्र के अभाव को सिद्ध करता है। किसी भी भ्रम का दूसरे प्रकारों से निराकरण नहीं हो पाता है। तीसरा भेद अकार्यकारणस्वरूप वस्तु का अनुपलम्भ दो प्रकार का है। निषेध करने योग्य के साथ तादात्म्य रखने वाले की अनुपलब्धि और निषेध्य के साथ तादात्म्य नहीं रखने वाले की अनुपलब्धि // 311 // उन दो भेदों में से पहले निषेध्य से अभिन्न स्वरूप दो पदार्थों की सिद्धि दो प्रकार की प्रतीत होती है, स्वभाव की अनुपलब्धि और व्यापक की अनुपलब्धि // 312 // प्रथम स्वभाव अनुपलब्धि का उदाहरण-मुझे दुःख नहीं है क्योंकि खेद नहीं है। द्वितीय व्यापक अनुपलब्धि का उदाहरण, यहाँ शिंशपा नहीं है क्योंकि कोई वृक्ष नहीं दिख रहा है। दुःख का स्वभाव विषाद हैं और शिंशपा का व्यापक वृक्ष है / अतः स्वभाव और व्यापक की अनुपलब्धि स्वभाववान् और व्याप्य के निषेध को सिद्ध कर देती है॥३१३॥ - कार्य और कारण से भिन्न चाहे जिसकी अनुपलब्धि से चाहे जिस किसी का अभाव सिद्ध किया नहीं जा सकता है ऐसा समझना चाहिए किन्तु प्रतिषेध करने योग्य वस्तु के साथ रहने वाले का ही यहाँ अभाव सिद्ध किया जाता है। अर्थात् अकार्यकारणरूप वस्तु की अनुपलब्धि का दूसरा भेद अतादात्म्य अनुपलब्धि हेतु अपने अविनाभावी साध्य को ही सिद्ध करता है। जैसे मुझ में मतिज्ञान नहीं है क्योंकि सम्यग्दर्शन की उपलब्धि नहीं है। जीवद्रव्य, आकाशद्रव्य आदि में रूप आदि नहीं है, क्योंकि स्पर्शगुण की अनुपलब्धि है, इस प्रकार समझ लेना चाहिए। अर्थात् मतिज्ञान का सहचारी सम्यग्दर्शन है और रूप आदि का सहचारी स्पर्श है। एक सहचारी के न होने से दूसरे अविनाभावी सहचारी का अभाव सिद्ध हो जाता है हेतु की जीवन शक्ति अविनाभाव है॥३१४-३१५॥ . इस प्रकार वह अनुपलब्धि श्रुति की प्रधानता से पाँच प्रकार की कही गई है।