________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 245 कारणव्यांपका दृष्टिः सांख्यादेर्नास्ति निर्वृतिः। सदृष्ट्यादित्रयासिद्धेरियं पुनरुदाहृता // 322 // कारणव्यापका व्याप्तिः स्वभावानुपलंभनं। तत्रैव परिणामस्यासिद्धेरिति यथोच्यते // 323 // परिणामनिवृत्तौ हि तद्व्याप्तं विनिवर्तते। सदृष्ट्यादित्रयं मार्ग व्यापकं पूर्ववत्परम् // 324 // सहचारिफलादृष्टिर्मत्यज्ञानादि नास्ति मे। नास्तिक्याध्यवसानादेरभावादिति दर्शिता // 325 // नास्तिक्यपरिणामो हि फलं मिथ्यादृशः स्फुटम् / सहचारितया मत्यज्ञानादिवद्विपश्चिताम् // 326 // सहचारिनिमित्तस्यानुपलब्धिरुदाहृता। दृष्टिमोहोदयासिद्धेरिति व्यक्तं तथैव हि // 327 // नहीं है, क्रम और अक्रम नहीं होने से। यहाँ साध्य में निषेध्य रूप से स्थित तत्त्व का कार्य अर्थक्रिया है तथा अर्थक्रिया के व्यापक क्रम और अक्रम हैं। अत: उन क्रम, अक्रमों की अनुपलब्धि होने से यह कार्य व्यापक अनुपलब्धि है॥३२०॥ उस निषेध्य के कार्य के व्यापक के व्यापक हो रहे पदार्थ की अनुपलब्धि इस प्रकार है-बौद्धों द्वारा स्वीकृत निरन्वय क्षणिक पदार्थ तत्त्व नहीं है-उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप परिणाम विशेष का अभाव होने से। यहाँ निषेध्य तत्त्व का कार्य अर्थक्रिया है। अर्थक्रिया के व्यापक क्रम और अक्रम हैं तथा क्रम और अक्रम को भी व्यापने वाला परिणाम विशेष है, उसकी अनुपलब्धि है अत: यह कार्यव्यापक-व्यापक-अनुपलब्धि है, ऐसा समझना चाहिए॥३२१।। सांख्य, नैयायिक आदि प्रतिवादियों के यहाँ मोक्ष नहीं होता है, क्योंकि उनके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की असिद्धि है। यहाँ निषेध करने योग्य मोक्ष का कारण मोक्षमार्गरूप परिणाम है, उसका व्यापक रत्नत्रय है, उसकी अनुपलब्धि है अत: यह कारणव्यापक अनुपलब्धि कही गई है। कारणव्यापकविरुद्ध उपलब्धि से यह अनुपलब्धि पृथक् है // 322 // ... यह कारण व्यापक अनुपलब्धि का उदाहरण है, उसी को साध्य करने में कारण के व्यापक-व्यापि स्वभाव की अनुपलब्धि इस दृष्टान्त द्वारा कही जाती है कि सांख्य आदि के मत में मोक्ष सिद्ध नहीं हो सकता है-परिणाम विशेष की असिद्धि होने से। यहाँ निषेध्य मोक्ष का कारण मोक्षमार्गरूप परिणाम है। उसका व्यापक रत्नत्रय है। उसका भी व्यापक परिणाम होना है। जब सांख्य आदि के यहाँ आत्मा में परिणाम नहीं हैं, तो पूर्व स्वभाव का त्याग, उत्तर स्वभाव का ग्रहण और द्रव्यरूप से या स्थूलपर्यायरूप से रूपपरिणाम की निवृत्ति हो जाने पर उससे व्याप्त रत्नत्रय की निवृत्ति हो जाती है। व्यापक के नहीं रहने पर व्याप्य भी नहीं रहता है, और सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय की निवृत्ति से मार्ग की तथा दूसरे व्यापक की पूर्व के समान निवृत्ति हो जाती है अत: यह कारण व्यापक व्यापक स्वभाव की अनुपलब्धि है॥३२३-३२४॥ सहचरकार्य की अनुपलब्धि इस प्रकार है कि मेरी आत्मा के मति अज्ञान, श्रुतअज्ञान आदि भाव नहीं हैं क्योंकि नास्तिपन के आग्रह, अभिनिवेश आदि का अभाव है। यह दिखाया गया है क्योंकि मिथ्यादर्शन का फल नास्तिक परिणाम हैं अतः यह सहचर कार्य अनुपलब्धि हेतु मिथ्यादर्शन का कार्य नास्तिक परिणाम का सहचारी मति अज्ञान आदि से विशिष्ट होता है। यह विद्वानों के सम्मुख स्पष्ट विषय है॥३२५-३२६॥