________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 235 सहचरविरुद्धकार्योपलब्धिः प्रशमादिनिश्चितेरिति सहचरव्यापकविरुद्धोपलब्धिः सद्दर्शनत्वनिश्चितेरिति सहचरव्यापकविरुद्धकार्योपलब्धिः प्रमाणादिव्यवस्थोपलब्धेरिति सहचरकारणविरुद्धोपलब्धिर्दर्शनमोहप्रतिपक्षपरिणामोपलब्धेरिति निबुध्यतां मत्याद्यज्ञानलक्षणनिषेध्याभावाविनाभावप्रतीतेरविशेषात्॥ इत्येवं तद्विरुद्धोपलब्धिभेदाः प्रतीतिगाः। यथायोगमुदाहार्याः स्वयं तत्त्वपरीक्षकैः॥२७४॥ इत्येवं निषिद्धे विरुद्धोपलब्धिभेदाश्चतुर्दशोदाहृता: प्रतीतिमनुसरंति कार्यकारणस्वभावोपलब्धिर्भेदत्रयवत्ततो यथायोगमन्यान्युदाहरणानि लोकसमयप्रसिद्धानि परीक्षकैरुपदर्शनीयानि प्रतीतिदाढ्योपपत्तेः॥ संप्रति साध्येनाविरुद्धस्याकार्यकारणेनार्थस्योपलब्धिभेदान् विभज्य प्रदर्शयन्नाह;साध्यार्थेनाविरुद्धस्य कार्यकारणभेदिनः। उपलब्धिस्त्रिधाम्नाता प्राक्सहोत्तरचारिणः॥२७५॥ यह है कि हम लोगों में दर्शन मोहनीय कर्म का उदय नहीं है क्योंकि उसके प्रतिपक्षी सम्यग्दर्शनरूप परिणामों की उपलब्धि है। यहाँ निषेधयोग्य दर्शनमोहनीय उदय का सहचारी कुमतिज्ञान है उसका निमित्तकारण मिथ्याश्रद्धान है उसके विरुद्ध सम्यग्दर्शन परिणामों की उपलब्धि है।॥२७३॥ जिस प्रकार यह सहचर विरुद्ध उपलब्धि है, उसका उदाहरण है-मुझ में मति, श्रुत, अवधि के प्रतिकूल अज्ञान नहीं है क्योंकि तत्त्वों के श्रद्धान की उपलब्धि हो रही है, यह हेतु है। उसी प्रकार सहचर विरुद्ध कार्य उपलब्धि हेतु प्रशम आदि का निश्चय होना है। तथा सद्दर्शनत्व का निश्चय यह हेतु सहचरव्यापकविरुद्ध उपलब्धि है और प्रमाण आदि की व्यवस्था का उपलम्भ होना-यह सहचरव्यापक-विरुद्ध कार्यउपलब्धि हेतु है। इसी प्रकार दर्शनमोहनीय के प्रतिपक्षी परिणामों की उपलब्धि, यह हेतु सहचरकारणविरुद्ध उपलब्धि है, ऐसा समझ लेना चाहिए क्योंकि मति आदि का अज्ञानस्वरूप निषेध्य के अभावरूप साध्य के साथ इन हेतुओं के अविनाभाव प्रतीत होने से कोई अन्तर नहीं है। अर्थात् उक्त हेतुओं का स्वकीय साध्य के साथ अविनाभाव विशेषता रहित होकर प्रतीत हो रहा है सामान्य रूप से दोनों में कोई अन्तर प्रतीत नहीं 'होता है। .. इस प्रकार उस विरुद्ध उपलब्धि की प्रतीति में आरूढ़ भेदों के यथायोग्य उदाहरण तत्त्वों की परीक्षा करने वाले विद्वानों से स्वयं समझ लेने चाहिए // 274 / / इस पूर्वोक्त प्रकार निषेधयुक्त साध्य करने पर विरुद्ध-उपलब्धि के चौदह उदाहरण कहे गये हैं। वे सभी भेद कार्योपलब्धि, कारण उपलब्धि, स्वभाव उपलब्धि इन तीन भेदों के समान प्रतीति का अनुसरण कर रहे हैं। अर्थात् कारण, भाव आदि को साधने में कार्य, स्वभाव आदि हेतु जैसे प्रतीत हैं, उसी प्रकार निषेध को साधने में विरुद्ध उपलब्धि के भेद भी प्रतीति में आते हैं। अतः परीक्षक विद्वानों के द्वारा योग्यतानुसार अन्य भी लोक और शास्त्र में प्रसिद्ध उदाहरण दिखला देने चाहिए क्योंकि उदाहरणों से प्रतीति दृढ़ होती है। यहाँ तक विरुद्धोपलब्धि का कथन किया है। इस समय साध्य अर्थ से अविरुद्ध, कार्य कारणपने से रहित अर्थ की उपलब्धि के भेदों के विभागों का प्रदर्शन कराते हुए आचार्य कहते हैं। अब 'तीसरे अकार्यकारण हेतु का विस्तार कहा जाता है -