________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 227 निश्चितानिश्चितात्मत्वं न चैकस्य विरुध्यते। चित्रताज्ञानवन्नानास्वभावैकार्थसाधनात् // 238 // तत एव न पक्षस्य प्रमाणेन विरोधनं / नापि वृत्तिर्विपक्षस्ते हेतोरेकांततश्च्युतेः॥२३९॥ उत्पादव्ययनिर्मुक्तं न वस्तु खरशृंगवत् / नापि ध्रौव्यपरित्यक्तं त्र्यात्मकं स्वार्थतत्त्वतः॥२४०॥ सहभावि गुणात्मत्वाभावे द्रव्यस्य तत्त्वतः / क्रमोत्पित्सु स्वपर्यायाभावत्वे च न कस्यचित् // 241 // नाक्रमेण क्रमेणापि कार्यकारित्वसंगतिः। तदभावे कुतस्तस्य द्रव्यत्वं व्योमपुष्पवत् // 242 // एवं हेतुरयं शक्त: साध्यं साधयितुं ध्रुवं। सत्त्ववन्नियमादेव लक्षणस्य विनिश्चयात् // 243 // तदियमकार्यकारणरूपस्य साध्यस्वभावस्योपलब्धिनिश्चितोक्ता। आचार्य कहते हैं-यह किसी का कहना समीचीन नहीं है क्योंकि अनेक स्वभाव वाली वस्तु का विशेष निश्चय हो जाने पर भी कतिपय धर्मयुक्तवस्तु का निश्चय नहीं हो पाता है। जैसे-सत्त्व, परिणामित्व आदि हेतुओं में उत्पाद आदि से युक्त साध्यस्वरूप के साथ अविनाभाव का निश्चय होने पर भी साध्य का निश्चय होना मनुष्यों में देखा जाता है। एक भाव के निश्चितस्वरूपपन और अनिश्चितस्वरूपपन में कोई विरोध नहीं है, क्योंकि अनेक स्वभाव वाले एक अर्थ को चित्रत्व ज्ञान समान सिद्ध किया गया है। अर्थात्-वस्तु के एक निश्चितस्वभाव से अनुमान द्वारा अन्य स्वभावों के साथ तदात्मक वस्तु का निश्चय हो जाता है॥२३७-२३८॥ पक्ष (प्रतिज्ञा) का प्रमाण के द्वारा विरोध नहीं आता है। एक ही धर्म से युक्त पदार्थ है' इस सिद्धान्त से च्युत हो जाने के कारण उस सत्त्वहेतु की विपक्ष में वृत्ति भी नहीं है। जो उत्पाद और व्यय से सर्वथा रहित है, वह गधे के सींग समान कोई वस्तु नहीं है, तथा ध्रुवपन से रहित भी कोई वस्तुभूत पदार्थ नहीं है अतः अर्थक्रिया करना रूप, प्रयोजन तत्त्व की अपेक्षा से सम्पूर्ण पदार्थ पूर्वस्वभाव का त्याग, उत्तरवर्ती स्वभावों का ग्रहण तथा अन्वितरूप से ध्रुवपनारूप तीन धर्मों से तदात्मक है।।२३९-२४०॥ अर्थात् पदार्थ का उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य के साथ तदात्मक सम्बन्ध है-इन तीनों से रहित कोई भी पदार्थ नहीं अनादि से अनन्त काल तक द्रव्य के साथ ध्रुवरूप से रहने वाले स्वभावी गुणों का अभाव हो जाने पर द्रव्य की यथार्थ से युगपत् कार्यकारीपन की संगति नहीं हो सकती। तथा क्रम से उत्पन्न होने वाले उत्पाद, व्ययरूप स्व पर्यायों का अभाव मानने पर किसी भी द्रव्य के क्रम, क्रम से कार्यकारीपन की गति नहीं हो सकती है। जब अर्थक्रिया को संपादन कराने के बीजभूत उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यस्वरूप सहभावी और क्रमभावी परिणाम नहीं स्वीकार करते हैं तो उस पदार्थ का द्रव्यपना कैसे सिद्ध हो सकता है? जैसे कि क्रम और युगपत् अर्थक्रिया को न करने से आकाशपुष्प को द्रव्यपना सिद्ध नहीं होता है। इस प्रकार यह द्रव्यत्व हेतु सत्त्वहेतु के समान उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य आत्मक साध्य को साधने के लिए समर्थ है, क्योंकि इसमें अविनाभाव है। अविनाभाव से ही समीचीन हेतु के लक्षण का विशेष निश्चय होता है॥२४१-२४२-२४३॥