________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *219 सत्ताविशेषयो: संतानयोः परस्परमुपकार्योपकारकभावाभावः शाश्वतत्वादिति युक्तं वक्तुं, कथंचिदशाश्वतत्वाविरोधात् / पर्यायार्थतः सर्वस्यानित्यत्वव्यवस्थितिः। ततः संतानिनामिव संतानयोः कथंचिदुपकार्योपकारकभावोऽभ्युपगंतव्य इति सिद्धमुभयात्मकयोरन्योन्यं साधनत्वं लिंगत्रितयनिमित्तं विघटयत्येव / न चैवमन्योन्याश्रयणं तयोरेकतरेण प्रसिद्धनान्यतरस्याप्रसिद्धस्य साधनात्। तदुभयसिद्धौ कस्यचिदनुमानानुदयात्॥ संप्रति पराभिमतसंख्यांतरनियममनूद्य दूषयन्नाह;यच्चाभूतमभूतस्य भूतं भूतस्य साधनम् / तथाभूतमभूत्तस्याभूतं भूतस्य चेष्ट्यते // 207 // नान्यथानुपपन्नत्वाभावे तदपि संगतम् / तद्भावे तु किमेतेन नियमेनाफलेन वः // 20 // न ह्यभूतादिलिंगचतुष्टयनियमो व्यवतिष्ठते भूताभूतोयं स्वभावस्यापि लिंगस्य तादृशि साध्ये संभवात्। न च तद्व्यवच्छेदमकुर्वन्नियमः सफलो नाम॥ सर्वहेतुविशेषाणां संग्रहो भासते यथा। तथा तद्भेदनियमे द्विभेदो हेतुरिष्यताम् // 209 // संक्षेपादुपलंभश्चानुपलंभश्च वस्तुनः / परेषां तत्प्रभेदत्वात्तत्रांतर्भावसिद्धितः // 210 // क्योंकि उन दोनों में प्रसिद्ध एक हेतु के द्वारा दोनों में से अप्रसिद्ध एक साध्य की सिद्धि कर ली जाती है। उन दोनों की सिद्धि हो जाने पर उन दोनों में से किसी के भी अनुमान का उदय नहीं होता। अतः हेतु की संख्याओं का उक्त नियम करना ठीक नहीं है, क्योंकि कार्य और कारण तथा अकार्यकारण इन तीन हेतुओं से पृथक् चौथा कार्यकारण उभय हेतु स्थित है। अब इस समय अन्य वादियों के द्वारा स्वीकृत हेतुओं की अन्य-अन्य विभिन्न संख्या के नियम का अनुवाद कर उसको दोष पूर्ण सिद्ध करते हुए आचार्य स्पष्ट निरूपण करते हैं अभूत साध्य का अभूत हेतु ज्ञापक है और भूत साध्य का साधक भूतहेतु है। उसी प्रकार अभूत का साधक भूतहेतु है। तथा भूत साध्य को साधने वाला अभूत हेतु इष्ट किया गया है। वह सभी अन्यथानुपपत्ति के न होने पर संगठित नहीं होते हैं। उस अन्यथानुपपत्ति के होने पर इन चार भेदों का नियम निष्फल करने से तुम्हारे कौनसा प्रयोजन सिद्ध होता है? अर्थात् अभूत आदि भेद करना व्यर्थ है॥२०७-२०८॥ अभूत आदि हेतु के चार भेदरूप अवयवों का नियम करना व्यवस्थित नहीं होता है। क्योंकि उस प्रकार के भूत, अभूत, उभयस्वरूप साध्य को साधने में भूतअभूत-उभयस्वभाव हेतु की भी सम्भावना बनी रहती है और उस पाँचवें हेतु भेद के व्यवच्छेद को नहीं करने वाले चार हेतु का नियम कैसे भी सफल नहीं कहा जा सकता है। अर्थात् यदि अन्यथानुपपत्ति नहीं है तो हेतुभेदों का नियम करना व्यर्थ है, और यदि अन्यथानुपपत्ति है तो भेद, प्रभेद करना नि:सार है। अन्यथानुपपत्ति ही हेतु का प्राण है। जैसे सम्पूर्ण हेतुओं के भेदों का संग्रह हो जाना प्रतिभासित होता है, उस प्रकार से उस हेतु के भेदों को नियम से दो प्रकार के हेतु इष्ट करना चाहिए। संक्षेप से वस्तु का उपलम्भ होना और अनुपलम्भ होना हेतु के ये दो भेद करना अच्छा है। क्योंकि अन्य शेष भेदों का इन दो भेद रूप होने से इन्हीं दो में अन्तर्माव सिद्ध हो जाता है अर्थात् उपलब्धि और अनुपलब्धि रूप दो हेतु में सर्व हेतु गर्भित हो जाते हैं।२०९-२१०॥