________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 175 तदसाधारणहेत्वाभासेपि तावदादित्वलक्षणमेव बुद्धोसर्वज्ञो वक्तृत्वादे रथ्यापुरुषवदित्यत्र हेतोः पक्षधर्मत्वं सपक्षे सत्त्वं विपक्षे वासत्त्वं। सर्वज्ञो वक्ता पुरुषो वा न दृष्ट इति। न च गमकत्वमन्यथानुपपन्नत्वविरहात्। विशिष्टं त्रैरूप्यं हेतुलक्षणमिति चेत् कुतो न तदविशिष्टं ? // सर्वज्ञत्वेन वक्तृत्वं विरुद्धं न विनिश्चितं। ततो न तस्य हेतुत्वमित्याचक्षणकः स्वयम् // 127 // तदेकलक्षणं हेतोर्लक्षयत्येव तत्त्वतः। साध्याभावविरोधो हि हेतोर्नान्यस्ततो मतः // 128 // तदिष्टौ तु त्रयेणापि पक्षधर्मादिनात्र किं। तदभावेपि हेतुत्वसिद्धेः क्वचिदसंशयम् // 129 // ___ साध्याभावविरोधित्वाद्धेतुस्त्रैरूप्यमविशिष्टकर्तृत्वादिति वदन्नन्यथानुपपन्नत्वमेव विशिष्टत्वमभ्युपगच्छति साध्याभावविरोधित्वस्यैवान्यथानुपपन्नत्वनियमव्यपदेशात्। तथा पक्षधर्मत्वमेकमन्यथानुपपन्नत्वेन विशिष्टं सपक्षे सत्त्वं वा विपक्षासत्त्वमेव वा निश्चितं साध्यसाधनायालमिति किंतन्त्रयेण समुदितेन कर्तव्यं पर तो वह त्रैरूप्य हेतु का असाधारण धर्म नहीं हो सकता है, क्योंकि यह त्रैरूप्य हेत्वाभास में भी पाया जाता है; अत: त्रैरूप्य लक्षण नहीं है। बुद्ध असर्वज्ञ है, वक्ता होने से, पुरुष होने से आदि। जैसे कि गली में चलने वाला मनुष्य असर्वज्ञ है। इस प्रकार के यहाँ अनुमान में हेतु का पक्षवृत्तित्व रूप है, अर्थात् वक्तापन हेतु बुद्ध में भी है। मुमुक्षुजनों के लिए मोक्ष का उपदेश देना बुद्ध का कर्तव्य बौद्धों ने माना है। बुद्ध में पुरुषपना भी है, अत: सपक्षसत्त्व भी है। निश्चित रूप से असर्वज्ञ वर्तमानकाल के उपदेशकों में वक्तापन, पुरुषपन, विद्यमान है। सर्वज्ञजीव परमात्मा वक्ता अथवा पुरुष होते हुए नहीं देखे गये हैं। इस प्रकार वक्तापन और पुरुषपन हेतु में त्रैरूप्य है। फिर तो मीमांसकों द्वारा कथित उक्त अनुमान द्वारा कहा गया बुद्ध का असर्वज्ञपना सिद्ध हो जाता है, किन्तु जैनों द्वारा माने गये हेतु के लक्षण अन्यथानुपपन्नत्व के बिना वे दोनों हेतु असर्वज्ञपन साध्य के गमक नही बन पाते हैं। . यदि द्वितीय पक्षानुसार विशेषों से युक्त त्रैरूप्य को हेतु का लक्षण कहोगे तो वह त्रैरूप्य किस विशेषणं से अविशिष्ट नहीं है? अर्थात् त्रैरूप्य में कौनसा विशेषण लगाया जाता है? . सर्वज्ञपन के साथ वक्तापन हेतु विरुद्ध होता हुआ विशेषरूप से निश्चित नहीं किया गया है अर्थात् सर्वज्ञ भी वक्ता हो सकते हैं इसमें कोई विरोध नहीं है। अत: वह वक्तापन समीचीन हेतु नहीं है। इस प्रकार कहने वाला (बौद्ध) स्वयं ही उस एक ही विपक्ष विरुद्ध को हेतु का परमार्थरूप से लक्षण करा रहा है, क्योंकि हेतु का साध्याभाव के साथ विरोध होना उस अन्यथानुपपत्ति से कोई पृथक् स्वरूप नहीं माना गया और उस साध्याभाव विरोध यानी अन्यथानुपपत्ति को ही हेतु का लक्षण इष्ट करने पर उस हेतु में पक्षवृत्तिपन आदि तीन धर्मों से क्या प्रयोजन है? क्योंकि कहीं उन तीन धर्मों के अभाव होने पर भी संशयरहित सद्धेतु सिद्ध हो जाता है॥१२७-१२८-१२९॥ साध्याभाव के साथ विरोधीरूप विशेषण न रहने से वक्तापन, पुरुषपन ये सत् हेतु नहीं हो सकते " हैं। इस प्रकार कहने वाले बौद्ध अन्यथानुपपत्ति नामक विशेषण से सहित हेतु को स्वीकार कर रहा है क्योंकि साध्याभाव के साथ विरोध रखने वाले का ही अन्यथानुपपत्ति व्यवहार कर दिया जाता है, और ऐसा होने