________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 192 न संति चेतनेष्वचेतनास्तद्वेदनादिकार्यासत्त्वात्। तथा न संत्यचेतनार्थेषु चेतनास्तित एवेति चेतनाचेतनविभागो न सिद्ध्यत्येव सर्वकार्यकरणासमर्थानां तेषां तत्र निषेद्धुमशक्तेः / चेतनार्था एव संतु तथा विज्ञानवादावताराज्जडस्य प्रतिभासयोगादिति चेन्न, तथा विज्ञानसंतानानां नानात्वाप्रसिद्धेः। क्वचिच्चित्तसंततेः संतानांतराणां सर्वकार्यकरणासमर्थानां स्वकार्यासत्त्वेपि सत्त्वाविरोधात् / मा भूत्संतानांतरसिद्धिस्तथेष्टेरितिचेन्न, निजसंतानस्याप्यसिद्धिप्रसंगात्। वर्तमानचित्तक्षणे संवेद्यमाने पूर्वोत्तरचित्तक्षणानामनुभवमात्रमप्यकुर्वतां प्रतिषेद्धुमशक्यत्वादेकचित्तक्षणात्मकत्वापत्तेः। न चैकः क्षण: संतानो नाम तत एव संवेदनाद्वैतमस्तु उत्तम पानद्वयमिति वचनात्। नेदमपि सिद्ध्यति वेद्यवेदकाकारविवेकस्याव्यवस्थानात्। संवेदने वेद्यवेदकाकारौ न स्त: स्वयमप्रतिभासनादिति न शक्यं वक्तुमप्रतिभासमानयोः सत्त्वविरोधात्। तत: क्वचित्कस्यचित्प्रतिभासनादेः क्योंकि वेदन, सुख, दुःख अनुभव आदि कार्य अचेतनों में नहीं पाये जाते हैं। उसी प्रकार अचेतन अर्थों में चेतन पदार्थ भी नहीं है क्योंकि उनके अलग-अलग कार्य परस्पर में नहीं देखे जाते हैं। इस प्रकार चेतन और अचेतन पदार्थों का विभाग तो बौद्धों के यहाँ सिद्ध ही नहीं हो पाता है, क्योंकि सम्पूर्ण कार्यों के करने में असमर्थ उन चैतन्यों का उन अर्थों में निषेध करने के लिए अशक्ति है (समर्थता नहीं है)। विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध कहते हैं कि जगत् में चेतन अर्थ ही रहे, कोई भी पदार्थ अचेतन नहीं है, क्योंकि सर्वत्र विज्ञानवाद का अवतार हो रहा है। जड़ पदार्थ का तो प्रतिभास होना अयुक्त है। इस प्रकार नहीं कहना चाहिए, क्योंकि ऐसा मानने पर बौद्धों के यहाँ विज्ञान की संतानों की अनेकता प्रसिद्ध नहीं हो सकेगी। किसी प्रकृत एक चित्त संतति के (संतान में) सम्पूर्ण दृश्यमान कार्यों के करने में असमर्थ अन्य संतानों के निज का कोई कार्य न होने से भी उनके सद्भाव का कोई विरोध नहीं है। (बौद्धों के विचारानुसार सर्वत्र सबका सद्भाव सम्भवनीय है)। सन्तानियों की प्रवाहरूप संतान के संतानान्तर की सिद्धि नहीं है, क्योंकि संतानान्तर का नहीं होना हमें इष्ट है। ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि ऐसा कहने पर बौद्धों के यहाँ अपने निज के पूर्व अपरकाल में प्रवहमान परिणामों की एक संतान बनने की असिद्धि का प्रसंग आएगा (अर्थात् अपने निज की सन्तान भी सिद्ध नही हो सकेगी)। वर्तमान काल के एक चित्तक्षण का संवेदन होता है ऐसा मानने पर पूर्वोत्तर चित्तक्षणों का निषेध करना शक्य नहीं है। ऐसी दशा में पूर्व उत्तर काल के सभी विज्ञानरूप चित्तक्षणों को वर्तमान काल के एक चित्तक्षणस्वरूप हो जाने का प्रसंग आवेगा, किन्तु एक ही क्षण का क्षणिक परिणाम तो संतान नहीं बन सकता है अर्थात् भूत भविष्य के बिना वर्तमान कोई पदार्थ नहीं है। शुद्धविज्ञानाद्वैतवादी कहते हैं कि इसलिए एक संवेदनाद्वैत ही उत्तम है। हमारे ग्रन्थों में कहा है कि संवेदन का अद्वय ही उत्तम है, किन्तु यहाँ भी बौद्धों का कहना सिद्ध नहीं होता है क्योंकि, ऐसा मानने पर वेद्य आकार और ज्ञान के वेदन आकारों का पृथग्भाव व्यवस्थित नहीं हो पाता है। "संवेदन में स्वयं जानने योग्य वेद्य आकार और स्वयं जानने वाला वेदक आकार-ये दोनों नहीं हैं क्योंकि उन आकारों का स्वयं प्रतिभास नहीं होता है। इस प्रकार बौद्धों का कथन शक्य नहीं है, क्योंकि