________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 165 पूर्वमतिविशेषनिबंधनत्वाविरोधात् साधनस्यासिद्धत्वायोगात्। न च तन्निबंधनत्वं प्रमाणत्वेन व्याप्तमनुमानेन स्वयं प्रतिपन्नं लिंगज्ञानं मतिविशेषपूर्वकत्वस्य प्रमाणत्वव्याप्तस्य तत्र प्रतीतेर्व्यभिचाराभावात्। श्रुतेन व्यभिचार इति चेन, तस्य प्रमाणत्वव्यवस्थापनात्। तदव्यभिचारिणो मतिनिबंधनत्वात्संवादकत्वादेवोह: प्रमाणं व्यवतिष्ठत ननूहस्यापि संबंधे स्वार्थे नाध्यक्षतो गतिः। साध्यसाधनसंबंधे यथा नाप्यनुमानतः॥१०१॥ तस्योहांतरत: सिद्धौ क्वानवस्थानिवारणं / तत्संबंधस्य चासिद्धौ नोहः स्यादिति केचन // 102 // ननूहस्यापि स्वार्थैरूझैः संबंधोभ्युपगंतव्यस्तस्य च साध्यसाधनस्येव नाध्यक्षाद्गतिस्तावतो व्यापारात् कर्तुमशक्तेः सन्निहितार्थग्राहित्वाच्च सविकल्पस्यापि प्रत्यक्षस्य। नाप्यनुमानतोऽनवस्थाप्रसंगात् तस्यापि मतिज्ञान कारण पड़ता है, उसी प्रकार उस तर्क नामक विशेष मतिज्ञान के कारण उसके पूर्व में हुए दूसरे स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, उपलम्भ, अनुपलम्भ आदि मतिज्ञान विशेष हैं इसमें कोई विरोध नहीं है। मतिज्ञान को कारण मानकर उत्पन्न होनापन, हेतु पक्ष में रहने से असिद्ध हेत्वाभास भी नहीं है, क्योंकि अनुमानरूप दृष्टान्त में मतिज्ञानरूप कारण से उत्पन्न होना रूप हेतु प्रमाणपनरूप साध्य के साथ व्याप्ति को रखता हुआ स्वयं नहीं जाना गया है, क्योंकि हेतु का ज्ञानरूप विशेष मतिज्ञान को कारण मानकर उत्पन्न होनापन प्रमाणत्वरूप साध्य के साथ अविनाभाव रखता है। उस हेतु की वहाँ अनुमान में प्रतीति होने का कोई व्यभिचार नहीं है। किसी का कथन है कि मतिज्ञान को कारण मानकर श्रुतज्ञान उत्पन्न हुआ है, किन्तु उस श्रुतज्ञान को प्रमाण नहीं माना है, अत: साध्य के न रहने पर भी श्रुतज्ञान में हेतु के रह जाने से जैनों का हेतु अनैकान्तिक है। जैनाचार्य कहते हैं, ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि उस श्रुतज्ञान को प्रमाणपना व्यवस्थित है, अत: यह हेतु उस प्रमाणपन के साथ अव्यभिचारीरूप मतिनिबंधनत्व और संवादक होने से तर्कज्ञान के प्रमाणपना व्यवस्थित हो ही जाता है। शंका : तर्क ज्ञान से जाने गये पदार्थों का अपने साध्य साधन संबंध को जानने में जैसे प्रत्यक्ष से गति नहीं है, उसी प्रकार अनुमान से भी उस संबंध को नहीं जाना जा सकता है, यदि तर्क से जाने गये पदार्थों का अपने ज्ञापक कारणों के साथ संबंध का जानना पुनः दूसरे तर्कों से सिद्ध किया जाएगा तब तो अनवस्था दोष का निवारण कैसे हो सकता है? अर्थात् तर्क के आत्मलाभ में दूसरे तर्क की और दूसरे तर्क में तीसरे तर्क की आकांक्षा बढ़ती जाने से अनवस्था दोष आता है। यदि ऊह से जानने योग्य पदार्थों का किसी ज्ञापक के साथ संबंध होने की सिद्धि न मानी जाएगी तब तो ऊहज्ञान प्रमाण नहीं हो सकेगा। (सम्बन्ध को जाने बिना उत्पन्न हुआ ऊहाज्ञान मिथ्याज्ञान हो जाता है) इस प्रकार कोई (बौद्ध) कहते हैं॥१०१-१०२॥ (तर्कज्ञान को प्रमाण नहीं मानने वाला बौद्ध कहता है कि) ऊहज्ञान का भी अपने जानने योग्य तळ पदार्थों के साथ संबंध ग्रहण करना स्वीकार करना चाहिए. परन्तु साध्य-साधन के उस संबंध का ज्ञान प्रत्यक्ष से तो नहीं हो सकता है। जैसे साध्य और साधन के सम्बन्ध को प्रत्यक्ष नहीं जानता है क्योंकि उतने व्यापारों को प्रत्यक्षज्ञान नहीं कर सकता है। (अर्थात् जो-जो धूमवान् प्रदेश हैं, वे सब अग्निमान हैं। या साध्य के