________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *163 किं च। लिंगज्ञानाद्विना नास्ति लिंगिज्ञानमितीष्यति। यथा तस्य तदायत्तवृत्तिता न तदर्थिता // 16 // प्रत्यक्षानुपलंभादेविनानुभूतितस्तथा। तर्कस्य तज्ज्ञता जातु न तद्गोचरतः स्मृता // 17 // न हि यद्यदात्मलाभकारणं तत्तस्य विषय एव लिंगज्ञानस्य लिंगिज्ञानविषयत्वप्रसंगात् प्रत्यक्षस्य च चक्षुरादिगोचरतापत्तेः / स्वाकारार्पणक्षमकारणं विषय इति चेत् कथमिदानी प्रत्यक्षानुपलंभयोस्तर्कात्मलाभनिमित्तयोर्विषयं स्वाकारमनर्पयतमूहाय साक्षात्कारणभावं चानुभवतं तर्कविषयमाचक्षतीत? तथाचक्षाणो वा कथमनुमाननिबंधनस्य लिंगज्ञानस्य विषयमनुमानगोचरतया प्रत्यक्षं प्राचक्षीत? न चेद्विक्षिप्तः। ततो न प्रत्यक्षानुपलंभार्थग्राही तर्कः। सर्वथा कथंचित्तदर्थग्राहित्वं तु तस्य नाप्रमाणतां विरुणद्धि प्रत्यक्षानुमानवदित्युक्तं॥ ___ अथवा, जैसे हेतुज्ञान के बिना साध्य का ज्ञान नहीं होता है, उस साध्य ज्ञान को उस हेतुज्ञान के आधीन होकर प्रवृत्ति होने से ही जाना जाता है। वैसे ही उस हेतुज्ञान का साध्यज्ञान द्वारा विषय हो जानापन नहीं जाना जाता है, अपितु साध्य के साथ अविनाभाव सम्बन्ध से जाना जाता है॥९६॥ भावार्थ : साध्यज्ञान का उत्पादक कारण हेतुज्ञान है, अवलम्ब कारण नहीं है। ज्ञापक हेतु और कारक हेतुओं में अन्तर है। साध्य का ज्ञान कराने में अनुमान ज्ञान स्वतंत्र है परन्तु उस अनुमान की उत्पत्ति हेतुज्ञान के अधीन है? उसी प्रकार प्रत्यक्ष, अनुपलम्भ, अभ्यास आदि कारणों के बिना तर्कज्ञान की भी उत्पत्ति नहीं हो पाती है। उन प्रत्यक्ष और अनुपलम्भ आदि के विषयों को जानने की अपेक्षा से उन कारणों का जान लेना तर्क में कभी भी नहीं माना गया है। तर्कज्ञान के उत्पादक कारण उपलम्भ अनुपलम्भरूप ज्ञान हैं किन्तु प्रत्यक्ष या अनुपलम्भ के जाने हुए विषय को तर्कज्ञान नहीं छूता है जैसे कि अनुमान अपने उत्पादक हेतु ज्ञान को या हेतु को विषय नहीं करता है। अत: तर्कज्ञान अपूर्व अर्थ का ग्राहक है॥९७।। - जो पदार्थ जिसके आत्मलाभ का कारण है, वह उस ज्ञान के जानने योग्य विषय होता है, यह कोई नियम नहीं है। ऐसा नियम करने पर तो हेतुज्ञान को साध्य ज्ञान में विषयपन हो जाने का प्रसंग आयेगा तथा घट का प्रत्यक्ष जैसे घट को जानता है, उसी प्रकार चक्षु, क्षयोपशम आदि को भी विषय करने लग जाएगा जो कि चाक्षुष प्रत्यक्ष के उत्पादक कारण हैं, यह आपत्ति होगी। ज्ञान का जो कारण स्वजन्य ज्ञान में अपने आकार का अर्पण करने के लिए समर्थ है, वह ज्ञान का विषय होता है। ऐसा कहने पर तो हम स्याद्वादी भी कह सकते हैं कि इस समय बौद्ध तर्क ज्ञान की आत्मलब्धि के निमित्त का कारण प्रत्यक्ष और अनुपलम्भ को तर्कज्ञान का विषय कैसे कह सकते हैं? प्रत्यक्ष और अनुपलम्भ यद्यपि तर्क ज्ञान के अव्यवहित कारणपन का अनुभव कर रहे हैं, तर्क ज्ञान के लिए अपने आकार का समर्पण नहीं कर रहे है। ऐसी दशा में प्रत्यक्ष ज्ञान और अनुपलम्भ ज्ञान द्वारा जान लिया गया विषय तर्कज्ञान से कैसे जाना जा सकता है? तर्कज्ञान को तथा अनुमान के कारणभूत लिङ्ग ज्ञान के प्रत्यक्ष विषय को अनुमान का विषय हो जाने से अनुमेय क्यों नहीं कहता है? अथवा लिङ्ग ज्ञान के विषय को अनुमान का विषय पड़ जाने से प्रत्यक्षपने का क्यों नहीं