________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 169 गृहीततत्संबंधस्य प्रतिपत्तुः क्वचित्कदाचिदनुत्पत्तिनिश्चयात्। नैवं प्रत्यक्षस्योत्पत्तिरपि करणार्थसंबंधग्रहणापेक्षा स्वयमगृहीततत्संबंधस्यापि पुनस्तदुत्पत्तिदर्शनात् / तद्वदूहस्याप्यतींद्रियात्मार्थसंबंधग्रहणनिरपेक्षस्योत्पत्तिदर्शनानोत्पत्तावपि संबंधग्रहणापेक्षत्वमिति युक्तं तर्कः॥ प्रमाणविषयस्यायं साधको न पुनः स्वयं। प्रमाणं तर्क इत्येतत्कस्यचिद्व्याहतं मतम् // 110 // प्रमाणविषये शुद्धिः कथं नामाप्रमाणतः। प्रमेयांतरतो मिथ्याज्ञानाच्चैतत्प्रसंगतः॥१११॥ भावार्थ : अनुमान ज्ञान व्याप्ति ग्रहण हुए बिना भी अपनी योग्यता से ही साध्य को जान लेगा, अतः उस सम्बन्ध को ग्रहण करने के लिए तर्कज्ञान की कल्पना करना व्यर्थ ही है। इस प्रकार की शंका के प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि तुम्हारा कहना ठीक है। अनुमान के द्वारा भी अपनी योग्यता के बल से सम्बन्ध के ग्रहण की नहीं अपेक्षा रखने वाले अनुमेय अर्थ का प्रतिभास होना हमको अभीष्ट है किन्तु अनुमान की उत्पत्ति तो हेतु और साध्य के सम्बन्धरूप व्याप्ति के ग्रहण की नहीं अपेक्षा रखने वाली नहीं है। जिस पुरुष ने उन हेतु और साध्य का सम्बन्ध ग्रहण नहीं किया है, उस प्रतिपत्ता को किसी भी स्थल में कभी भी अनुमान की उत्पत्ति नहीं होती है, ऐसा निश्चय है। अनुमान के उत्पन्न हो जाने पर स्वतंत्रता से अनुमान द्वारा अनुमेय अर्थ का प्रकाश हो जाता है, किन्तु उसकी उत्पत्ति तो स्वतंत्र नहीं है, क्योंकि अनुमान को उत्पन्न कराने में स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, प्रत्यक्ष इन प्रमाणों की आवश्यकता है, अतः साध्य को जानने वाला अनुमान स्वतंत्र है, किन्तु अपनी उत्पत्ति में सम्बन्ध ग्रहण की अपेक्षा रखता है, अतः परतंत्र भी है। इस प्रकार प्रत्यक्ष की उत्पत्ति भी इन्द्रिय और अर्थ के सम्बन्ध का ग्रहण करने की अपेक्षा नहीं रखती है, क्योंकि जिस पुरुष ने उन इन्द्रिय और अर्थों के सम्बन्ध को स्वयं ग्रहण नहीं भी किया है, उसके भी फिर उस प्रत्यक्ष के समान तर्कज्ञान की भी इन्द्रिय अगोचर आत्मा और अर्थ के सम्बन्ध को ग्रहण नहीं करने की अपेक्षा रखते हुए भी उत्पत्ति देखी जाती है। तर्क की उत्पत्ति में भी सम्बन्ध के ग्रहण की अपेक्षा नहीं है, अतः तर्कज्ञान में अनवस्था दोष नहीं आता है। इस प्रकार मतिज्ञान का एक भेद तर्कज्ञान मानना युक्त 'अनुमान प्रमाण के विषय का साधक या परिशोधक तर्कज्ञान स्वयं तो प्रमाण नहीं है (अर्थात् जो ज्ञान प्रमाण का साधक है वह प्रमाण ही हो, यह कोई नियम नहीं है), अतः अनुमान प्रमाण का साधक तर्कज्ञान एकान्तरूप से प्रमाण नहीं कहा जा सकता है। इस प्रकार यह किसी का कथन व्याघात दोष से युक्त है, क्योंकि, प्रमाण के विषय में अप्रमाण ज्ञान से शुद्धि कैसे हो सकती है? अन्यथा (यानी अप्रमाण पदार्थ से प्रमाण की शुद्धि होना माना जायेगा तो) दूसरे घट, पट आदि प्रमेयों से अथवा संशय आदिक मिथ्याज्ञानों से भी इस प्रमाण विषय के शोधकपने का प्रसंग आयेगा // 110-111 // प्रश्न : जैसे संशयित अर्थों में निर्णय करने के लिए प्रमाणों की प्रवृत्ति होना लोक में देखा जाता है, उसी प्रकार तर्क से जाने गये विषयों में भी निर्णयार्थ मनुष्यों की प्रवृत्ति होती है, अत: यह भी संशय -- ज्ञान होगा ?