________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 149 द्रव्यपर्यायात्मनि नित्यात्मके वस्तुनि जात्यंतरपरिणामिन्येव द्रव्यतः प्रत्यभिज्ञा सदृशपरिणामतो संभवति सर्वथा विरोधाभावान्न पुनर्नित्याद्यकांते विरोधसिद्धेः। तथाहिनित्यैकांते न सा तावत्पौर्वापर्यवियोगतः। नाशकांतेपि चैकत्वसादृश्याघटनात्तथा // 72 // नित्यानित्यात्मके त्वर्थे कथंचिदुपलक्ष्यते। जात्यंतरे विरुध्येत प्रत्यभिज्ञा न सर्वथा // 73 // ततो न प्रत्यभिज्ञायाः किंचिद्वाधकमस्तीति बाधाविरहलक्षणस्य संवादस्य सिद्धेरप्रमाणत्वसाधनमयुक्तं। ननु चैकत्वे प्रत्यभिज्ञा तत्सिद्धौ प्रमाणं संवादात्तत्प्रमाणत्वसिद्धौ ततस्तद्विषयस्यैकत्वस्य सिद्धिरित्यन्योन्याश्रयः / द्रव्य और पर्यायों में तदात्मक कथंचित् नित्य अनित्यस्वरूप तथा पूर्व स्वभाव का त्याग, उत्तर स्वभाव का ग्रहण तथा स्थूल पर्यायों की ध्रुवतास्वरूप ऐसी विलक्षण गति की वस्तु में ही द्रव्यदृष्टि से सदृश परिणाम होने से प्रत्यभिज्ञान संभव है। इसमें सर्वथा विरोध का अभाव है। एकान्त से नित्य का क्षणिक आदि पदार्थों में प्रत्यभिज्ञान नहीं हो सकता है, क्योंकि नित्यादि एकान्त में प्रत्यभिज्ञान के विरोध की सिद्धि है। तथाहि-पदार्थ को एकान्त से कूटस्थ नित्य मानने पर पूर्वापर का वियोग हो जाने से उसमें प्रत्यभिज्ञा नहीं हो पाती है, तथा सर्वथा क्षण में नाश हो जाने का एकान्त मानने पर भी एकपन और सदृशपन घटित नहीं होता है। अतः सर्वथा क्षणिक पक्ष में भी एकत्व का और सादृश्य का विषय करने वाली प्रत्यभिज्ञा नहीं हो सकती है।॥७२॥ ___ स्याद्वादसिद्धान्तानुसार नित्य, अनित्य, एकान्तों से पृथक् जाति वाले कथंचित् नित्य-अनित्य आत्मक अर्थ में प्रत्यभिज्ञान होता है अतः नित्य अनित्य से पृथक् तीसरी जाति वाले अर्थ में प्रत्यभिज्ञान होने का सर्वथा विरोध नहीं है। भावार्थ : नित्य द्रव्यों को द्रव्यार्थिकनय विषय करता है और अंश रूप पर्यायों को पर्यायार्थिकनय जानता है, किन्तु द्रव्य और पर्यायों से तदात्मक जात्यंतर वस्तु को प्रमाण ज्ञान जानता है॥७३॥ __ अत: सिद्ध हुआ कि सादृश्य प्रत्यभिज्ञान और एकत्व प्रत्यभिज्ञान का कोई बाधक प्रमाण नहीं है। इसलिए बाधाओं के अभाव से लक्षण संवाद की सिद्धि हो जाने से प्रत्यभिज्ञान में अप्रमाणपन सिद्ध करना युक्त नहीं है। शंका : उस वस्तुभूत एकत्व की सिद्धि हो जाने पर बाधा से रहित संवाद से प्रत्यभिज्ञान में प्रमाणपना सिद्ध होता है और उस प्रत्यभिज्ञान में प्रमाणपना सिद्ध हो चुकने पर उस प्रमाण के विषयभूत वास्तविक एकत्व की सिद्धि होती है अत: यह परस्पराश्रय दोष है। यदि दूसरे प्रत्यभिज्ञान से पहले प्रत्यभिज्ञान के विषय एकत्व को सिद्ध किया जाता है, तब तो दूसरे प्रत्यभिज्ञान के विषय की भी अन्य तीसरे आदि प्रत्यभिज्ञानों से सिद्धि होगी तब अनवस्था दोष आयेगा। समाधान : ग्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकार बौद्धों को नहीं कहना चाहिए क्योंकि ऐसा कहने पर प्रत्यक्ष को भी नील आदि विषयों को जानने में प्रमाणपना साधने पर समान रूप से अन्योन्याश्रय और अनवस्था दोष प्राप्त होते हैं। जैसे वास्तविक नील पदार्थ के सिद्ध हो जाने पर नील प्रत्यक्ष (नील संवेदन)