________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 152 सादृश्यमर्थेभ्योऽभ्युपगम्यते तदापि तस्यैकत्वे तदभिन्नानामनामेकत्वापत्तिरेकस्मादभिन्नानां सर्वथा नानात्वविरोधात्। पदार्थनानात्ववद्वा तस्य नानात्वेभ्योऽनतिरस्य सर्वथैकत्वविरोधात्। तथा चोभयोरपि पक्षयोः सादृश्यासम्भवः। सादृश्यवतां सर्वथैकत्वे तत्र सादृश्यानवस्थानात्। सादृश्यं सर्वथा नानाचेत् सादृश्यरूपतानुपपत्तेः। सादृश्यमर्थेभ्यो भिन्नाभिन्नमिति युक्तं विरोधादुभयदोषानुषंगाच्च। तदर्थेभ्यो येनात्मना भिन्नं तेनैवाभिन्नं विरुध्यते। परेण भिन्नं तदन्येनाभिन्नमित्यवधारणात्तदुभयदोषप्रसक्तिः। संशयवैयधिकरण्यादयोपि दोषास्तत्र दुर्निवारा एवेति सादृश्यस्य विचारासहत्वात् कल्पनारोपितत्वमेव तद्विषयं च प्रत्यभिज्ञानं स्वार्थे यदि पुनः सदृश अर्थों से सादृश्य को अभिन्न स्वीकार करते हैं तो भी उस सादृश्य को यदि एक माना जायेगा तो उस सादृश्य से अभिन्न अर्थों के भी एकपन का प्रंसग आयेगा क्योंकि जो एक पदार्थ से अभिन्न है. उनके सर्वथा अनेकपन का विरोध है। अथवा अभेदपक्ष में पदार्थों के अनेकपन के समान उस सादृश्य को भी अनेकपने का प्रसंग आयेगा। अनेक से अभिन्न पदार्थ को सभी प्रकार एकपन हो जाने का विरोध है, अतः उक्त प्रकार से भिन्न-अभिन्न दोनों भी पक्षों में सादृश्य का बनना असम्भव है। सादृश्य वाले (घट आदि) पदार्थों को सर्वथा एक हो जाना मानने पर तो उस एक में सदृशपना व्यवस्थित नहीं हो सकता (क्योंकि सदृशपना दो में रहता है, एक में नहीं अत: एक ही में रहने वाला सादृश्य नहीं होता है)। यदि सादृश्य को (व्यक्तियों के समान) सर्वथा अनेक मानते हो तो उसको सादृश्यरूपपने की अनुपपत्ति होगी। अर्थात् उनमें सादृशपना नहीं रह सकता। बौद्ध : सादृश्य को अर्थों से भिन्न और अभिन्न यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि एक ही धर्म को भिन्न और अभिन्न कहने में विरोध दोष और उभय नाम के दोष का प्रसंग आता है। वह सादृश्य सदृश अर्थों से जिस स्वरूप से भिन्न है, उसी स्वरूप से अभिन्न कहना यह विरुद्ध है। ___यदि वह सादृश्य दूसरे स्वभावों से भिन्न है और उनसे पृथक् अन्य तीसरे स्वभावों से अभिन्न है, ऐसा कहते हैं तो उभय नाम के दोष का प्रसंग आता है तथा उस भेद-अभेद पक्ष में संशय, वैयधिकरण, संकर', व्यतिकर, अनवस्था', अप्रतिपत्ति, अभाव -इन दोषों का भी कठिनता से ही निवारण हो सकेगा अतः उक्त प्रक्रिया से तुम्हारा माना हुआ सादृश्य पदार्थ विचारों को सहज नहीं कर सकता है। इसलिए सादृश्य कल्पना आरोपित है (वस्तुभूत नहीं है)। तथा सादृश्य का विषय करने वाला प्रत्यभिज्ञान स्वकीय 1. वस्तु के स्वरूप का निर्णय नहीं करना, चित्त को डाँवाडोल रखना संशय है। 2. भेद और अभेद का नियम करने वाले स्वभावों का भिन्न अधिकरण होना वैयधिकरण है। 3. भेद और अभेद का एकमेक हो जाना संकर दोष है। 4. परस्पर में विषय गमन करना व्यतिकर है। 5. वस्तु का निर्णय नहीं होना, एक हेतु का कथन करके उससे वस्तु की सिद्धि नहीं होने से, दूसरा हेतु कहना, इस प्रकार हेतु ___ की कांक्षा बढ़ते रहना अनवस्था दोष है। 6. वस्तु के समझने का उपाय शेष न रहने से धर्म अधर्म की प्रतिपत्ति नहीं होना अप्रतिपत्ति है। 7. वस्तु को सिद्ध करने का साधन नहीं होना अभाव अप्रमाण है।