________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 127 बुद्धिरध्यवंसति तदध्यवसितं पुरुषश्चेतयत इति श्रोत्रादिवृत्तिर्हि न सकृत्सर्वार्थविषया यतस्तत्प्रत्यक्षत्वे योगिप्रत्यक्षसंग्रहः स्यात्। न च प्रमाणतो विचार्यमाणा श्रोत्रादिवृत्तिः सांख्यानां युज्यते। सा हि न तावत्पुरुषपरिणामोनभ्युपगमात् ,नापि प्रधानस्यानंशस्यामूर्तस्य नित्यस्य सा कादाचित्कत्वात् / न ह्यकादाचित्कस्यानपेक्षस्य कादाचित्कः परिणामो युक्तः सापेक्षस्य तु कुतः कौटस्थ्यं नामापेक्षणार्थकृतातिशयस्यावश्यं भावान्निरतिशयत्वविरोधात् कौटस्थ्यानुपपत्तेः॥ पुंसः सत्संप्रयोगे यदिंद्रियाणां प्रजायते। तदेव वेदनं युक्तं प्रत्यक्षमिति केचन // 37 // ___ ते न समर्था निराकर्तुं प्रत्यक्षमतींद्रियं प्रत्यक्षतोनुमानादेर्वा सर्वज्ञत्वप्रसंगतः। न ह्यसर्वज्ञः सर्वार्थसाक्षात्कारिज्ञानं नास्तीति कुतश्चित्प्रमाणान्निश्चेतुं समर्थ इति प्रतिपादितप्रायं। न च तदभावानिश्चये किये गये उस अर्थ का अहंकार तत्त्व अभिमान करता है (कि मैं अर्थ का गर्व करता हूँ)। बाद में अभिमान किए गए अर्थ का बुद्धि निर्णय कर लेती है। (यह सब प्रकृति का कार्य है)। अनन्तर उस बुद्धि से निर्णीत किये गये अर्थ को आत्मा अनुभव करता है। इस प्रकार इन्द्रिय, मन, संकल्प आदि की वृत्ति प्रत्यक्ष प्रमाण है। इस प्रकार कहने वाले (सांख्य) के वह वृत्ति एक ही बार सम्पूर्ण अर्थों को विषय नहीं कर सकेगी जिससे कि उन सब पदार्थों का प्रत्यक्ष ज्ञान होने से योगियों के प्रत्यक्ष का संग्रह हो सकता। भावार्थ : इन्द्रियवृत्तिरूप प्रत्यक्ष से सर्वज्ञप्रत्यक्ष का संग्रह नहीं हो सकता है। प्रमाणों से विचारित कान आदि इन्द्रियों की वृत्ति सांख्यों के यहाँ युक्ति सहित नहीं घटित होती है, क्योंकि सांख्यदर्शन में इस इन्द्रियवृत्ति को पुरुष का परिणाम स्वीकार नहीं किया है तथा अंशरहित, अमूर्त, नित्य ऐसी प्रकृति का भी परिणाम यह इन्द्रियवृत्ति नहीं है, क्योंकि इन्द्रियवृत्ति तो कादाचित्क है (कभी किसी काल में होने वाली है) और जो कादाचित्क है, वह नित्य नहीं है। अथवा किसी सहकारी की अपेक्षा रखने वाली उस प्रकृति का कभी-कभी होने वाला प्रत्यक्षरूप परिणाम होना उचित नहीं है। यदि प्रकृति या आत्मा को अन्य सहकारियों की अपेक्षा रखने वाला माना जाएगा तो उनमें कूटस्थपना कैसे बन सकेगा? क्योंकि अपेक्षा किये जा रहे पदार्थ से बनाये गये अतिशय का होना आवश्यक है, उपादान कारण में या कार्य में अतिशय कर देने वाले को ही सहकारी माना गया है, और ऐसा होने पर आत्मा के अतिशय रहितपने का विरोध होगा तथा कूटस्थपना रक्षित नहीं रह सकेगा, अतः प्रत्यक्ष का लक्षण इन्द्रियवृत्ति मानना उचित नहीं है। इन्द्रियों का विद्यमान पदार्थ के साथ समीचीन संसर्ग होने पर जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसी ज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण मानना युक्त है। इस प्रकार कोई (मीमांसक) कहते हैं // 37 // आचार्य कहते हैं कि वे अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष का निराकरण करने में समर्थ नहीं हैं, क्योंकि प्रत्यक्ष से और अनुमान आदि प्रमाणों से सर्वज्ञपन का प्रसंग प्रतीत होता है अर्थात् सर्वज्ञ की सिद्धि अनुमान और प्रत्यक्ष ज्ञान से होती है / - असर्वज्ञ अल्पज्ञानी प्राणी “सम्पूर्ण अर्थों का साक्षात् करने वाले ज्ञान से युक्त कोई नहीं है;" ऐसा किसी भी प्रमाण से निश्चय करने के लिए समर्थ नहीं है। इसका बहुत बार प्रतिपादन कर दिया गया है। उस