________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 133 इत्याचक्षणिको नामानुमामस्त पृथक्प्रमा। प्रत्यक्षं तद्धि तन्मूलमिति चार्वाकतागतिः॥१९॥ योपि प्रत्यक्षमनुमानं च प्रवर्तकं प्रमाणमिति मन्यमानः स्मृतिमूलस्याभिलाषादेरिव व्यवहारप्रवृत्तेर्हेतोः प्रत्यक्षमूलस्मरणस्यापि प्रमाणतां प्रत्याक्षीत सोनुमानमपि प्रत्यक्षात्पृथक्प्रमाणं मामस्त तस्य प्रत्यक्षमूलत्वात् / न ह्यप्रत्यक्षपूर्वकमनुमानमस्ति। अनुमानांतरपूर्वकमस्तीति चेन्न, तस्यापि प्रत्यक्षपूर्वकत्वात्। सुदूरमपि गत्वा तस्याप्रत्यक्षपूर्वकत्वेनवस्थाप्रसंगात्। तत्पूर्वत्वे सिद्धे प्रत्यक्षपूर्वकमनुमानमिति न प्रमाणं स्यात्। ततश्च बाधकत्वप्राप्तिरस्य॥ स्वार्थप्रकाशकत्वेन प्रमाणमनुमा यदि। स्मृतिरस्तु तथा नाभिलाषादिस्तदभावतः॥२०॥ स्वार्थप्रकाशकत्वं प्रवर्तकत्वं न तु प्रत्यक्षार्थप्रदर्शकत्वं नाप्यर्थाभिमुखगतिहेतुत्वं तच्चानुमानस्यास्तीति जैसे स्मतिमल अभिलाषादि से प्रवर्तक व्यवहार प्रमाण नहीं है, उसी प्रकार इन्द्रियजन्यज्ञान को मूल कारण स्वीकार कर उत्पन्न स्मृति भी प्रमाण नहीं है। इस प्रकार कहने वाले (बौद्ध) अनुमान को भी पृथक् प्रमाण नहीं मान सकते क्योंकि, उस अनुमान का भी मूल कारण वह प्रत्यक्ष प्रमाण ही है। इस प्रकार इस नैयायिक या मीमांसक अथवा बौद्ध को चार्वाकपना प्राप्त हो जाता है, क्योंकि चार्वाक ही उन ज्ञानों को प्रमाण नहीं मानता है, एक प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानता है॥१८-१९॥ यदि बौद्ध अर्थ में प्रवृत्ति कराने में कारण होने से प्रत्यक्ष और अनुमान को प्रमाण मानते हैं तो स्मृति के निमित्त से उत्पन्न अभिलाषा आदिक से व्यवहार की प्रवृत्ति होती है उनको प्रमाण क्यों नहीं मानते? यदि अर्थ में प्रवृत्ति कराने वाले अभिलाषा आदि को स्मृति आदि से उत्पन्न होने से प्रमाणपना नहीं मानेंगे तो बौद्ध अनुमान को भी प्रत्यक्ष से पृथक् प्रमाण नहीं मान सकेंगे, क्योंकि उस अनुमान का मूल कारण प्रत्यक्ष है। अप्रत्यक्षपूर्वक कोई भी अनुमान नहीं होता है। अनुमान के पीछे होने वाला दूसरा अनुमान तो प्रत्यक्षपूर्वक नहीं है। अतः सभी अनुमान प्रत्यक्षपूर्वक नहीं होते हैं ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि दूसरे तीसरे आदि अनुमान का भी परम्परा से कारण प्रत्यक्ष ही है। बहुत दूर भी जाकर उस अनुमान को यदि प्रत्यक्षपूर्वक नहीं माना जाएगा तो अनवस्था दोष का प्रसंग आएगा। (क्योंकि व्याप्ति या हेतु को अनुमान द्वारा जानते जानते आकांक्षा की निवृत्ति नहीं होती है)। यदि दूर भी जाकर किसी अनुमान के पूर्व में हुए प्रत्यक्ष को कारणपना सिद्ध मान लोगे तो प्रत्यक्षपूर्वक अनुमान होता है, यह सिद्ध होगा अतः वह प्रमाण नहीं हो सकेगा। इसलिए बौद्ध मत की सिद्धि में बाधक प्रमाण विद्यमान है। स्व और अर्थ का प्रकाशक होने से यदि अनुमान को प्रमाण स्वीकार करोगे तो उसी प्रकार स्वपर प्रकाशक होने से स्मृति ज्ञान को भी प्रमाण स्वीकार करना होगा। ज्ञान से भिन्न अभिलाषा, पुरुषार्थ आदि तो उस स्वार्थ के प्रकाशक का अभाव होने से वे प्रमाण नहीं हो सकते हैं, अचेतन पदार्थ प्रमाण नहीं हैं // 20 // . स्व और अर्थ को प्रकाशित करना ही ज्ञान में प्रवर्तकपना है, ऐसा भी नहीं है क्योंकि प्रत्यक्ष अर्थ