________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 138 प्रत्यक्षवत्स्मृतेः साक्षात्फले स्वार्थविनिश्चये। किं साधकतमत्वेन प्रामाण्यं नोपगम्यते // 35 // पारंपर्येण हानादिज्ञानं च फलमीक्ष्यते। तस्यास्तदनुस्मृत्यंतर्याथार्थ्यवृत्तितोर्थिनः॥३६॥ ___ ततो न योगोपि स्मृतेरप्रमाणत्वं समर्थयितुमीशः प्रत्यक्षादिप्रमाणत्वं वा, यथोक्तदोषानुषंगात्॥ प्रत्यभिज्ञाय च स्वार्थं वर्तमानो यतोर्थभाक् / मतं तत्प्रत्यभिज्ञानं प्रमाणं परमन्यथा // 37 // तद्विधैकत्वसादृश्यगोचरत्वेन निश्चितं। संकीर्णव्यतिकीर्णत्वव्यतिरेकेण तत्त्वतः // 38 // तेन तु न पुनर्जातमदनांकुरगोचरं / सादृश्यप्रत्यभिज्ञानं प्रमाणं नैकतात्मनि // 39 // एकत्वगोचरं च स्यादेकत्वे मानमंजसा। न सादृश्ये यथा तस्मिंस्तादृशोयमिति ग्रहः // 40 // का ग्रहण करना, उपेक्षा करना आदि या तद्विषयकज्ञान देखे जा रहे हैं, क्योंकि, अर्थ की अभिलाषा रखने वाले जीव की उस स्मृति के अनुसार स्मरण के भीतर आए हुए अर्थ में यथार्थरूप से प्रवृत्ति होती है। अर्थात् स्मरण द्वारा जीव अभीष्ट पदार्थ की प्राप्ति और अनिष्ट पदार्थ का परित्याग करते हैं अतः स्मृति ज्ञान प्रमाण है॥३५-३६॥ ___तथा नैयायिक भी स्मृति के अप्रमाणपन का समर्थन करने के लिए समर्थ नहीं है। अथवा स्मृति को प्रत्यक्ष, अनुमान आदि स्वरूप भी सिद्ध नहीं कर सकता है। अर्थात्-आवश्यक माने गये प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों में स्मृति का अंतर्भाव नहीं हो सकता है, क्योंकि स्मृति को प्रत्यक्ष या अनुमान में गर्भित करने पर पूर्व में कहे अनुसार दोषों का प्रसंग आता है। अब (आचार्य) प्रत्यभिज्ञान का विचार करते हैं स्व और अर्थ का प्रत्यभिज्ञान करके प्रवृत्ति करने वाले पुरुष को अर्थभाक् (अर्थ को प्राप्त कराने वाला) प्रत्यभिज्ञान है अत: दर्शन और स्मरण को कारण मानकर उत्पन्न हुए प्रत्यभिज्ञान को प्रमाण माना गया है, किन्तु, जो दूसरा प्रत्यभिज्ञान यथार्थ की ज्ञप्ति कराने वलाा नहीं है, वह अन्यथा (प्रत्यभिज्ञानाभास) है // 37 // जो एकत्व और सदृश के यथार्थ रूप का ज्ञान करता है वह प्रमाणभूत. प्रत्यभिज्ञान है परन्तु सादृश्य में एकत्व का और एकत्व में सदृश का ज्ञान करता है वह प्रत्यभिज्ञानाभास है। सादृश्य और एकत्व के भेद से वह प्रत्यभिज्ञान दो प्रकार का है। एक तो एकपन को विषय करने वाला एकत्व प्रत्यभिज्ञान है, दूसरा दृष्ट और दृश्यमान पदार्थों में सादृश्य को विषय करने वाला सादृश्य प्रत्यभिज्ञान है। यह प्रत्यभिज्ञान अनेक धर्मों की युगपत् प्राप्ति हो जाने रूप संकर दोष और परस्पर विषयों में गमन करने रूप व्यतिकर दोष से रहित है, अत: यथार्थ रूप से वस्तु की ज्ञप्ति करा देता है। इसलिए सादृश्य और एकत्व ये दोनों ही ज्ञान प्रमाणभूत हैं, परन्तु काटने पर पुनः उत्पन्न हुए मदनांकुर, नख केश आदि के काटने पर पुन: उत्पन्न होने पर भी यह वही नखादि है, ऐसा कहने वाला प्रत्यभिज्ञान प्रमाणभूत नहीं है, क्योंकि काट देने पर भी पुन: उत्पन्न होने वाले ऐसे केश आदि को विषय करने वाला सादृश्य प्रत्यभिज्ञान उनके एकपन को जानने में प्रमाण नहीं है। अर्थात् पूर्व में कट कर नष्ट हुए पुन: उत्पन्न हुए पदार्थों में वे वही हैं, ऐसा परमार्श होजाता है। ये सन्मुख स्थित अलग नये उत्पन्न हुए केश हैं अतः इनमें सदृशपने का प्रत्यभिज्ञान ये “उनके सरीखे हैं" ऐसा कहना तो ठीक है किन्तु “वे के वे ही ये हैं" :- यह आग्रह करना प्रत्यभिज्ञानाभास है।।३८-३९-४०॥