________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *136 प्रत्यक्षमर्थवन्न स्यादतीतेर्थे समुद्भवत्। तस्य स्मृतिवदेवं हि तद्वदेव च लैंगिकम् // 26 // नार्थाजन्मोपपद्येत प्रत्यक्षस्य स्मृतेरिव। तद्वत्स एव तद्भावादन्यथा न क्षणक्षयः॥२७॥ अर्थाकारत्वतोध्यक्षं यदर्थस्य प्रबोधकं / तत एव स्मृतिः किं न स्वार्थस्य प्रतिबोधका // 28 // अस्पष्टत्वेन चेन्नानुमानेप्येवं प्रसंगतः। प्राप्यार्थेनार्थवत्ता चेदनुमानायाः स्मृतेर्न किम् // 29 // ततो न सौगतोऽनुमानस्य प्रमाणतामुपयंस्तामपाकर्तुमीशः सर्वथा विशेषाभावात् / / मनसा जन्यमानत्वात्संस्कारसहकारिणा। सर्वत्रार्थानपेक्षेण स्मृतिर्नार्थवती यदि॥३०॥ तदा संस्कार एव स्यात्प्रवृत्तिस्तन्निबंधना। तत्रासंभवतोर्थे चेद्व्यक्तमीश्वरचेष्टितम् // 31 // स्वलक्षण अर्थ को माना है। प्रत्यक्षज्ञान के उत्पन्न होने पर उसका कारण स्वलक्षण अर्थ नष्ट हो जाता है अत: अर्थ के अतीत हो जाने पर उस बौद्ध के यहाँ क्षणिक पदार्थ से उत्पन्न प्रत्यक्ष प्रमाण भी स्मृति के समान . अर्थवान् न हो सकेगा तथा उस प्रत्यक्ष के ही समान अनुमानज्ञान भी अतीत अर्थ के होने पर उत्पन्न होता है, अतः वह भी अर्थवान् नहीं हो सकेगा॥२५-२६॥ स्मृति जैसे अर्थ से उत्पन्न नहीं होती है, उसी के समान प्रत्यक्ष की उत्पत्ति भी अर्थ से मानना उचित नहीं है। जैसे स्मृति अर्थ के बिना ही हो जाती है, वैसे ही वह प्रत्यक्ष भी अर्थ के बिना उत्पन्न हो जाता है। अन्यथा क्षणिकवाद नहीं रहेगा क्योंकि ऐसा मानने पर दो-तीन आदि क्षणों तक स्वलक्षणतत्त्व का स्थित रहना सिद्ध होता है। ___ जैसे अर्थाकारत्व प्रत्यक्ष अर्थ का प्रबोधक है, उसी प्रकार स्मृति भी स्व पर अर्थ की प्रतिबोधिका क्यों नहीं होगी? अवश्य होगी॥२८॥ अस्पष्ट प्रतिभास होने के कारण स्मृति अर्थ की प्रतिबोधिका नहीं है-ऐसा भी कहना उचित नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर अनुमान के भी अर्थवान् नहीं होने का प्रसंग आएगा। यदि प्राप्त करने योग्य वस्तुभूत स्वलक्षण अर्थ की अपेक्षा से अनुमान को अर्थवान् कहा जाता है, तब तो प्राप्त करने योग्य अर्थ की अपेक्षा से स्मृति ज्ञान को भी अर्थवान् क्यों नही माना जाता है।॥२९॥ अत: अनुमान के प्रमाणपन को स्वीकार करने वाला बौद्ध उस स्मृति का खण्डन करने के लिए समर्थ नहीं हो सकता क्योंकि सभी प्रकारों से अनुमान और स्मृति में कोई प्रामाण्य और अप्रामाण्य की प्रयोजक विशेषताओं का अभाव है जिनसे कि अनुमान में प्रमाणपना और स्मृति में अप्रमाणपना ठहरा दिया जाए। यदि पदार्थ से सर्वथा निरपेक्ष संस्कार सहकारी मन से उत्पन्न होने से स्मृति अर्थवाली नहीं हैऐसा (बौद्ध) कहेंगे, तो संस्कार ही अर्थ की प्रवृत्ति में कारण होंगे परन्तु अर्थ के बिना केवल संस्कार द्वारा प्रवृत्ति होना संभव नहीं है। अथवा स्मृति को अप्रमाण मानना वैशेषिकों द्वारा माने गये स्वतंत्र ईश्वर के सदृश कुछ भी युक्त-अयुक्त मनमानी क्रिया करना है।३०-३१॥