________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 94 यो ह्यवग्रहाद्यात्मकमिंद्रियजं प्रत्यक्षम१र्जनितत्वात् तदनपेक्षं तु स्मरणादि मानसं लिंगानपेक्षणादिति ब्रूयात् तेन मतिज्ञानमेवास्माकमिष्टं नामांतरेणोक्तं स्यात्। तद्विशेषस्तु लिंगापेक्षोनुमानमिति च प्रमाणद्वयं मतिज्ञानव्यक्त्यपेक्षयोपगतं भवेत्। तथा च शब्दापेक्षत्वात्कुतो ज्ञानं ततः प्रमाणान्तरं न सिद्ध्येत् संवादकत्वाविशेषादिति प्रमाणत्रयसिद्धेः। “यत्प्रत्यक्षपरामर्शिवचः प्रत्यक्षमेव तत् / लैंगिकं तत्परामर्शि तत्प्रमाणांतरं न चेत्' सर्वः प्रत्यक्षेणानुमानेन वा परिच्छिद्यार्थं स्वयमुपदिशेत् परस्मै नान्यथा तस्यानाप्तत्वप्रसंगात्। तत्र प्रत्यक्षपरामर्युपदेशः प्रत्यक्षमेव यथा लैंगिकमिति न श्रुतं ततः प्रमाणांतरं येन प्रमाणद्वयनियमो न स्यादिति चेत्॥ नाक्षलिंगविभिन्नायाः सामग्या वचनात्मनः। समुद्भूतस्य बोधस्य मानांतरतया स्थितेः॥१७१॥ अक्षलिंमाभ्यां विभिन्ना हि वचनात्मा सामग्री तस्याः समुद्भूतं श्रुतं प्रमाणांतरं युक्तमिति न तदध्यक्षमेवानुमानमेव वा सामग्रीभेदात् प्रमाणभेदव्यवस्थापनात्॥ नहीं होने के कारण स्मरण आदिक इन्द्रिय प्रत्यक्ष और मानस प्रत्यक्ष में गर्भित है। इस पर आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार उस वादी ने हमारा माना गया मतिज्ञान दूसरे नाम से स्वीकार किया है। उसी मतिज्ञान का एक भेद तो लिंग की अपेक्षा रखने वाला अनुमान है। इस प्रकार एक सामान्य मतिज्ञान के व्यक्ति की अपेक्षा से भेद को प्राप्त हुए दो प्रमाण प्रत्यक्ष और अनुमान स्वीकृत करने चाहिए और इसी प्रकार शब्द की अपेक्षा से उत्पन्न हुआ श्रुतज्ञान उससे भिन्न तीसरा प्रमाण क्यों नहीं सिद्ध होगा? अर्थात् अवश्य होगा क्योंकि प्रत्यक्ष या अनुमान के समान संवादकपना श्रुतज्ञान में भी एकसा है, कोई अन्तर नहीं है। इस प्रकार तीन प्रमाण प्रसिद्ध हो जाते हैं॥१७०॥ प्रश्न : प्रत्यक्ष का विचार करने वाला वचन प्रत्यक्ष रूप ही है और अनुमान का परामर्श करने वाला वचन अनुमान प्रमाण रूप है अतः श्रुतज्ञान प्रमाणान्तर नहीं है? अपितु प्रत्यक्ष का ही भेद है। (बौद्ध) सभी उपदेशक विद्वान प्रत्यक्ष अथवा अनुमान से स्वयं, अर्थ को जानकर दूसरों के लिए उपदेश देते हैं, अन्यथा (प्रत्यक्ष और अनुमान से स्वयं नहीं जानकर) उपदेश नहीं दे सकते हैं क्योंकि अर्थ को बिना जाने उपदेश देने से अनाप्तपने का प्रसंग आता है तथा प्रत्यक्ष ज्ञान से अर्थ को जानकर परामर्श करने वाला उपदेश प्रत्यक्ष ही है, जैसे कि अनुमान से अर्थ को जानकर उपदेश देने वाले का वचन अनुमानरूप है अतः श्रुतज्ञान उन प्रत्यक्ष और अनुमान से पृथक् प्रमाण नहीं है, जिससे कि हमारे प्रत्यक्ष और अनुमान इन दो प्रमाणों का नियम नहीं हो सके? उत्तर : ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष की सामग्री इन्द्रिय और अनुमान की सामग्री अविनाभावी हेतु से सर्वथा भिन्न हो रही वचनरूप सामग्री से उत्पन्न श्रुतज्ञान की तीसरी पृथक् प्रमाण व्यवस्था मानना उपयुक्त है॥१७१॥ .. प्रत्यक्ष और अनुमान के कारण इन्द्रियाँ और ज्ञापक हेतुओं से वचनस्वरूप सामग्री सर्वथा भिन्न है। तथा उससे समुत्पन्न हुआ श्रुतज्ञान भी भिन्न प्रमाण है यह सिद्धान्त युक्तिपूर्ण है अतः वह श्रुतज्ञान प्रत्यक्षरूप अथवा अनुमान स्वरूप नहीं है, अपितु इनसे भिन्न प्रमाण है, क्योंकि सामग्री के भिन्न-भिन्न होने से प्रमाण के भेद की व्यवस्था हो जाती है।