________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 110 मणिप्रदीपप्रभयोर्मणिबुद्ध्याभिधावतः। मिथ्याज्ञानविशेषेपि विशेषोर्थक्रियां प्रति // 16 // यथा तथा यथार्थत्वेप्यनुमानं तदोभयोः। नार्थक्रियानुरोधेन प्रमाणत्वं व्यवस्थितम् // 17 // ततो नास्यानुमानतदाभासव्यवस्था। दृष्टं यदेव तत्प्राप्तमित्येकत्वाविरोधतः / प्रत्यक्षं कस्यचित् तच्चेन्न स्याद्भ्रान्तं विरोधतः॥१८॥ प्रत्यक्षमभ्रांतमिति स्वयमुपयन् कथं भ्रांतं ज्ञानं प्रत्यक्षं सन्निदर्शनं ब्रूयात् ? अप्रमाणत्वपक्षेपि तस्य दृष्टांतता क्षतिः। प्रमाणांतरतायां तु संख्या न व्यवतिष्ठते // 19 // ततः सालंबनं सिद्धमनुमानं प्रमात्वतः। प्रत्यक्षवद्विपर्यासो वान्यथा स्याद्दुरात्मनाम् // 20 // कथं सालंबनत्वेन व्याप्तं प्रमाणत्वमिति चेत्है अर्थात् झूठे मणिज्ञान में प्रमाणपना नहीं है। तथाहि-यहाँ मणि की प्रभा में मणिबुद्धि से और दीपक की प्रभा में मणि की बुद्धि से अर्थप्राप्ति के लिए उस ओर दौड़नेवाले दो पुरुषों को मिथ्याज्ञान का अविशेष होते हुए भी अर्थक्रिया के प्रति जैसी विशेषता मानी जाती है, उसी प्रकार यथार्थपना होते हुए भी अनुमान ज्ञान प्रमाण है। उस समय विषय सहित होने के कारण प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों का प्रमाणपना होने पर भी अर्थक्रिया के अनुसार अनुरोध से प्रमाणपना व्यवस्थित नहीं है॥१६-१७॥ इस प्रकार बौद्धों के यहाँ अनुमान और अनुमानाभास की व्यवस्था नहीं हो सकती है। अर्थात् मिथ्या अनुमान और सम्यक् अनुमान दोनों एक से हो जाते हैं-जो पदार्थ देखा गया वही पदार्थ प्राप्त किया जाए, इस प्रकार यदि एकपने के अविरोध से किसी का भी प्रत्यक्ष होना मानोगे तो वह भ्रान्तज्ञान न हो सकेगा क्योंकि इसमें विरोध है। अर्थात् अर्थ की प्राप्ति करा देने से ज्ञान में प्रमाणपना नहीं है अपितु ज्ञान में हेय, उपादेय अर्थ की प्रदर्शकता ही प्रमाणपना है॥१८॥ प्रत्यक्ष भ्रांतिरहित होता है, इस बात को स्वयं स्वीकार करने वाला (बौद्ध) मणिप्रभा के भ्रान्त ज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण का समीचीन दृष्टान्त कैसे कह सकेगा? अर्थात् नहीं कह सकता। उस मणिप्रभा में हुए मणिज्ञान को यदि अप्रमाण माना जायेगा तो उसको दृष्टान्तपने की क्षति होगी। यदि उसको प्रत्यक्ष आदि से अन्य निराला प्रमाण मानें तो संख्या व्यवस्थित नहीं होती। अत: अनुमान प्रमाण आलंबन सहित सिद्ध होता है; वह प्रमाणज्ञान है, जैसे कि प्रत्यक्षज्ञान अपने ग्राह्य विषय से सहित है। अन्यथा दुराग्रही जीवों के यहाँ यदि परोक्ष अनुमान ज्ञान को निर्विषय माना जाएगा तो प्रत्यक्ष भी निर्विषय हो जाएगा। अथवा प्रत्यक्ष ज्ञान भी दुष्ट जीवों के विपर्यय ज्ञान हो जायेगा॥१९-२०॥ विषयसहितपने के साथ प्रमाणपना हेतु व्याप्तियुक्त कैसे है? इस प्रकार शंका करने पर जैनाचार्य समाधान करते हैं अर्थ के असम्भव होने पर प्रत्यक्ष में भी प्रमाणपने का अभाव होता है अत: अर्थसहितपने के साथ प्रमाणपना व्याप्त मानना चाहिए। यदि प्राप्ति करने योग्य अर्थ की अपेक्षा से अनुमान में अर्थसहितपना इष्ट