________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 113 ज्ञानग्रहणसंबंधात्केवलावधिदर्शने। व्युदस्यते प्रमाणाभिसंबंधादप्रमाणता॥२॥ सम्यगित्यधिकाराच्च विभंगज्ञानवर्जनं। प्रत्यक्षमिति शब्दाच्च परापेक्षान्निवर्तनम् // 3 // ___ न ह्यक्षमात्मानमेवाश्रितं परमिंद्रियमनिंद्रियं वापेक्षते यतः प्रत्यक्षशब्दादेव परापेक्षान्निवृत्तिर्न भवेत् / तेनेंद्रियानिंद्रियानपेक्षमतीतव्यभिचारं साकारग्रहणमित्येतत्सूत्रोपात्तमुक्तं भवति / ततः। प्रत्यक्षलक्षणं प्राहुः स्पष्टं साकारमंजसा। द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषार्थात्मवेदनम् // 4 // सूत्रकारा इति ज्ञेयमाकलंकावबोधने। प्रधानगुणभावेन लक्षणस्याभिधानतः॥५॥ यदा प्रधानभावेन द्रव्यार्थात्मवेदनं प्रत्यक्षलक्षणं तदा स्पष्टमित्यनेन मतिश्रुतमिंद्रियानिंद्रियापेक्षं व्युदस्यते, तस्य साकल्येनास्पष्टत्वात् / यदा तु गुणभावेन तदा प्रादेशिकप्रत्यक्षवर्जनं तदपाक्रियते, ____ ज्ञान के ग्रहण का सम्बन्ध होने से निराकार केवलदर्शन और अवधिदर्शन का निवारण हो जाता है क्योंकि वे दर्शन हैं, ज्ञान नहीं। तथा प्रमाणपद का सम्बन्ध होने से अवधि आदि का अप्रमाणपना खण्डित हो जाता है एवं सम्यक्पद का अधिकार होने से विभंगावधि का निवारण हो जाता है तथा सूत्र में पड़े हुए प्रत्यक्ष इस शब्द से दूसरों की अपेक्षा रखने वाले परोक्ष ज्ञान की भी व्यावृत्ति हो जाती है। अथवा प्रत्यक्षपद से आत्ममात्रापेक्ष से उत्पन्न होने से दूसरे इन्द्रिय आदि की अपेक्षा रखने वाले प्रत्यक्ष की व्यावृत्ति हो जाती है अर्थात् सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष का भी निराकरण हो जाता है॥२-३॥ त्यक्षप्रमाण अक्ष यानी आत्मा का ही आश्रय लेकर उत्पन्न होता है; उससे भिन्न इन्द्रिय और मन की वह अपेक्षा नहीं करता है, जिससे कि प्रत्यक्ष शब्द से पर की अपेक्षा रखने वाले ज्ञान की निवृत्ति न हो, ऐसा नहीं है। अर्थात् प्रत्यक्ष शब्द से पर की अपेक्षा रखने वाले ज्ञान की निवृत्ति हो जाती है अत: इन्द्रिय और अनिन्द्रिय की अपेक्षा नहीं रखने वाला तथा व्यभिचार दोष से रहित-ऐसा सविकल्पक ग्रहण करना प्रत्यक्ष है। इस प्रकार इस सूत्र से ही ग्रहण किये गये अर्थ को श्री अकलंकदेव ने कहा है। . इस हेतु से सूत्रकार श्री उमास्वामी आचार्य ने स्पष्ट और सविकल्प तथा व्यभिचार आदि दोषरहित सामान्यरूप द्रव्य और विशेष रूप पर्याय अर्थों को तथा अपने स्वरूप को जानना ही प्रत्यक्ष का लक्षण कहा है। इस प्रकार अकलंक देव के ज्ञान को भी जानना चाहिए। अथवा इस ज्ञान को अकलंक (निर्दोष) जानना चाहिए क्योंकि प्रधान और गौणपने से लक्षण का कथन किया गया है॥४-५॥ ___ जिस समय प्रधान रूप से द्रव्यस्वरूप अर्थ और स्वयं अपना वेदन करना प्रत्यक्ष का लक्षण है, तब ‘स्पष्ट' विशेषण से इन्द्रिय और अनिन्द्रिय की अपेक्षा रखने वाले मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का निराकरण किया जाता है क्योंकि वे स्मृति आदि सभी मतिज्ञान और श्रुतज्ञान सम्पूर्ण अंशों से अस्पष्ट हैं (अर्थात् प्रत्यक्ष के लक्षण में स्पष्ट पद देने से ही उनका निराकरण होता है)। किन्तु जब गौणरूप से द्रव्य अर्थ और आत्मा का वेदन करना प्रत्यक्ष का लक्षण कहा जाता है, तब एकदेश से विशद (अर्थावग्रह, ईहा, अवाय, धारणारूप इन्द्रिय अनिन्द्रिय) प्रत्यक्ष छूट जाते हैं। उसका निराकरण किया गया है क्योंकि इसमें व्यवहार नय का आश्रय लिया गया है।