________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 114 व्यवहाराश्रयणात्। साकारमिति वचनान्निराकारदर्शनव्युदासः। अंजसे ति विशेषणाद्विभंगज्ञानमिंद्रियानिंद्रियप्रत्यक्षाभासमुत्सारितं / तच्चैवंविधं द्रव्यादिगोचरमेव नान्यदिति विषयविशेषवचनाद्दर्शित / तत: सूत्रवार्तिकाविरोध: सिद्धो भवति / न चैवं योगिनां प्रत्यक्षमसंगृहीतं यथा परेषां तदुक्तं॥ लक्षणं सममेतावान् विशेषोऽशेषगोचरं। अक्रमं करणातीतमकलंकं महीयसाम् // 6 // भावार्थ : यद्यपि व्यवहारनय की दृष्टि स इन्द्रिय और मन से उत्पन्न एकदेश विशद मतिज्ञान को भी व्यवहार में प्रत्यक्ष माना है, परन्तु यहाँ पर मुख्य प्रत्यक्ष का कथन है, इसलिए इनका निषेध किया है। ___ प्रत्यक्ष के लक्षण को कहने वाले वार्तिक में साकार इस वचन से विकल्परहित दर्शन की व्यावृत्ति की गई है तथा अंजसा इस विशेषण से विभंगज्ञान और इन्द्रिय प्रत्यक्षाभास, मानसप्रत्यक्षाभास का निराकरण किया है अर्थात् वे ज्ञान स्पष्ट तो हैं, किन्तु निर्दोष नहीं हैं, मिथ्याज्ञानपने से दूषित हैं। विषय विशेष के कथन से इस बात को प्रकट किया है कि ___प्रत्यक्षप्रमाण द्रव्य, पर्याय, सामान्य और विशेष स्वरूप अर्थ को और स्व को ही विषय करने वाला है, इससे भिन्न केवल विशेष अथवा अकेले सामान्य को जानने वाला नहीं है, विषयविशेष के कथन करने से इस बात को प्रकट किया है अतः सूत्र और वार्तिक का अविरोध होना सिद्ध हो जाता है तथा, इस प्रकार प्रत्यक्ष का लक्षण करने से योगी प्रत्यक्ष असंग्रहीत नहीं है अपितु अतीन्द्रियज्ञान का भी संग्रह हो जाता है। जैसा दूसरों ने कहा है कि इन्द्रिय और अर्थ के संनिकर्ष से उत्पन्न हुआ व्यभिचार दोष से रहित निर्विकल्पक और सविकल्पकस्वरूप ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमिति है। चक्षु श्रोत्र आदि इन्द्रियों की वृत्ति करना प्रत्यक्ष है यह सांख्यों का मत है। आत्मा और इन्द्रियों का सत् पदार्थ के साथ सम्प्रयोग होने पर जो ज्ञान होता है, वह प्रत्यक्ष है ,ऐसा मीमांसक का कथन है। इन सब प्रत्यक्ष के लक्षणों से अतीन्द्रिय प्रत्यक्षों का संग्रह नहीं होता है किन्तु आर्हतों के लक्षण से सम्पूर्ण प्रत्यक्षों का संग्रह हो जाता है। ऊपर कहा गया प्रत्यक्ष का लक्षण समान रूप से व्यवहार प्रत्यक्ष और मुख्य प्रत्यक्ष इन दोनों में घटित हो जाता है। परन्तु यह विशेष है कि अधिक पूज्य पुरुषों का केवलज्ञान रूप प्रत्यक्ष अशेषगोचर है (सम्पूर्ण अर्थों को विषय करता है)। क्रम से अर्थों को नहीं जानता है। इन्द्रिय, मन आदि करणों से अतिक्रान्त है तथा ज्ञानावरण कर्म कलंक रहित होने से अकलंक है। (किन्तु इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष अल्प पदार्थों को विषय करता है, क्रम-क्रम से अर्थों को जानता है, करणों के आधीन है और कर्मपटल से घिरा हुआ होने से सकलंक है अर्थात् पूर्ण निर्दोष नहीं ह ) // 6 //