________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 101 सादृश्यस्मृत्यादयो हि यापमानरूपास्तदा तदुत्थापकसादृश्यादिस्मृत्यादिभिर्भवितव्यं अन्यथा तस्य तदुत्थापनसामर्थ्यासम्भवात् स्मृत्याद्यगोचरस्यापि तदुत्थापनसामर्थ्यतिप्रसंगात् / प्रत्यक्षगोचरचारि सादृश्यमुपमानस्योत्थापकमिति चेन्न, तस्य दृष्टदृश्यमानगोगवयव्यक्तिगतस्य प्रत्यक्षागोचरत्वात्। गोसदृशो गवय इत्यतिदेशवाक्याहितसंस्कारो हि गवयं पश्यत्प्रत्येति गोसदृशोऽयं गवय इति। तत्र गोदर्शनकाले यदि गवयेन सादृश्यं दृष्टं श्रुतं गवयदर्शनसमये स्मर्यते प्रत्यभिज्ञायते च गवयप्रत्ययनिमित्तः सोयं गवयशब्दवाच्य इति संज्ञासंज्ञिसंबंधप्रतिपत्तिनिमित्तं वा तदा सिद्धमेव स्मृत्यादिविषयत्वमुपमानजननस्य सादृश्यस्येति कुतः प्रत्यक्षगोचरत्वं? यतस्तत्सादृश्यस्मृत्यादेरुपमानत्वे अनवस्था न स्यात् / तथापत्त्युत्थापकस्यानन्यथा भवनस्य परिच्छेदकस्मृत्यादयो यद्यर्थापत्तिरूपास्तदा तदुत्थापका परानन्यथा भवनप्रमाणरूपत्वपरिच्छेदिरपरैः से विषय नहीं किये गए सादृश्य की भी उस उपमान के उत्थित कराने में शक्ति मानी जाएगी तो अतिप्रसंग दोष आएगा। अर्थात् गौ और गवय के सादृश्य को बिना जाने भी वन में रोझ को देखकर इस गवय के सदृश गौ होती है, ऐसा उपमान प्रमाण उस सादृश्य के विद्यमान होने मात्र से उत्पन्न होने का प्रसंग आएगा किन्तु ऐसा होता नहीं है। प्रत्यक्ष का विषय करने वाला सादृश्य उपमान का उत्पादक है, ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि पर्वकाल में देखी गई गौ के सदश गवय होता है। इस प्रकार वद्धवाक्य को सनकर धारणा नामक संस्कार को धारने वाला पुरुष वन में गवय को देखता हुआ अवश्य ऐसा निर्णय कर लेता है कि यह गवय गौ के सदृश है। प्रत्यक्ष और अनुमान इन प्रमाणों को मानता है। वहाँ प्रथम गौ का दर्शन करते समय यदि गवय के साथ गाय का सदृशपना देखा या सुना है, पीछे गवय का दर्शन करते समय उस देखे या सुने हुए सादृश्य का स्मरण हो जाता है और वैसे सादृश्य का स्मरण हो जाने से सादृश्य का प्रत्यभिज्ञान होता है, तब वह अरण्य में देखे गये विशिष्ट पशु में गवयज्ञान का निमित्तकारण होता है कि यह व्यक्ति गवयशब्द का वाच्य है। अथवा संज्ञा और संज्ञा वाले संबंध की प्रतिपत्तिरूप उपमान का निमित्त वह स्मृत या प्रत्यभिज्ञात सादृश्य है, तब तो उपमान को उत्पन्न करने वाले सादृश्य को स्मृति या प्रत्यभिज्ञान का विषयपना सिद्ध ही है। इस प्रकार वह सादृश्य प्रत्यक्ष का विषय कैसे हो सकता है ? जिससे कि फिर उस सादृश्य को जानने वाले स्मृति आदि को उपमान प्रमाण मानने पर अनवस्था दोष नहीं होता है? अर्थात् अवश्य होता तथा अर्थापत्ति प्रमाण को उत्थापन कराने वाले अन्यथा नहीं होने रूप हेतु के जानने वाले स्मृति आदि पुन: यदि अर्थापत्ति रूप होंगे तब तो उन अर्थापत्तियों के उत्थापक दूसरे अनन्यथा भवन को प्रमाण रूप होते हुए जानने वाले दूसरे स्मृति आदि को होना चाहिए और वे स्मृति आदि भी पुन: अर्थापत्तिरूप होंगे, इस अर्थापत्ति में स्मरण की और तर्क की आवश्यकता पड़ती है अन्यथा अर्थापत्ति के उत्थापक अनन्यथा भवन की प्रतिपत्ति नहीं होगी। इस प्रकार अनेक अर्थापत्तिरूप स्मृति आदि की आकांक्षा बढ़ती रहने के कारण अनवस्था होती है जैसे कि उन स्मृति आदिकों को अनुमानस्वरूप कहने से अनवस्था होती है वैसे यहाँ समझना चाहिए। (क्योंकि उस अनुमान के उत्थापक व्याप्तिस्मरण और लिंग के प्रत्यभिज्ञान को भी पुनः अनुमानरूप कहना आवश्यक होगा)