________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 102 स्मृत्यादिभिर्भवितव्यमित्यनवस्था तासामनुमानरूपत्ववत्प्रतिपत्तव्याः। कथमभावप्रमाणरूपत्वे स्मृत्यादीनां सदंशे प्रवर्तकत्वं विरुध्यत इति चेत् , अभावप्रमाणस्यासदंशनियतत्वादिति ब्रूमः। न हि तद्वादिभिस्तस्य सदंशविषयत्वमभ्युपगम्यते। सामर्थ्यादभ्युपगम्यत इति चेत् , प्रत्यक्षादेरसदंशविषयत्वं तथाभ्युपगम्यतां विशेषाभावात् / एवं चाभावप्रमाणवैयर्थ्यमसदंशस्यापि प्रत्यक्षादिसमधिगम्यत्वसिद्धेः / साक्षादपरभावपरिच्छेदित्वान्नाभावप्रमाणस्य वैयर्थ्यमिति चेत् , तर्हि स्मृत्यादीनामभावप्रमाणरूपाणां साक्षादभावविषयत्वात्सदंशे प्रवर्तकत्वं कथं न विरुद्धं / ततो नोपमानादिषु स्मृत्यादीनामंतर्भाव इति प्रमाणांतरत्वसिद्धेः सिद्धा स्वेष्टसंख्याक्षतिः चतुःपंचषट्प्रमाणाभिधायिनाम्॥ तद्वक्ष्यमाणकान् सूत्रद्वयसामर्थ्यतः स्थितः। द्वित्वसंख्याविशेषोत्राकलंकैरभ्यधायि यः॥१७९॥ शंका : स्मृति आदि को अभाव प्रमाणरूप मानने पर सद्रूप भाव अंश में प्रवृत्ति करा देना कैसे विरुद्ध पड़ता है ? समाधान : अभाव प्रमाण असद्रूप अंश में नियत है, ऐसा मीमांसक कहते हैं। उस अभाव प्रमाण को मानने वाले मीमांसकों के द्वारा उस अभाव प्रमाण का विषय भाव अंश स्वीकार नहीं किया गया है (ऐसी दशा में अभावप्रमाणरूप स्मृति आदिक से धूम आदि को जानकर भाव में प्रवृत्ति कैसे हो सकेगी? यदि मीमांसक कहें कि अभाव प्रमाण मुख्यरूप से वस्तु के असत् अंश को जानता है और सत् अंश के बिना असत् अंश ठहर नहीं सकता है)। इस सामर्थ्य से अभाव प्रमाण द्वारा भाव अंश का जानना भी हमें स्वीकृत है। आचार्य कहते हैं तब तो हम स्याद्वादी कहेंगे कि इस प्रकार सामर्थ्य होने से प्रत्यक्ष अनुमान आदि पाँच भावग्राही प्रमाणों को भी असत् अंश का विषय करना मानना चाहिए। क्योंकि, इन दोनों में कोई अन्तर नहीं है और इस प्रकार व्यवस्था होने पर तो छठे अभाव प्रमाण का मानना व्यर्थ सिद्ध होता है क्योंकि, प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से ही असत् अंश का भी अधिगम हो जाना सिद्ध हो जाता है। यदि अभाव प्रमाण साक्षात् अव्यवहितरूप से अन्य भावों का परिच्छेदी न होकर अभाव का परिच्छेदक है और प्रत्यक्ष आदि प्रमाण तो भाव को जानकर पीछे परम्परा से अभाव को जानते हैं अत: साक्षात् अभाव का ज्ञायक होने से अभाव प्रमाण व्यर्थ नहीं है, तब तो अभाव प्रमाणस्वरूप स्मृति आदि ज्ञान भी अव्यवहित रूप से अभाव को ही विषय करेगा, अतः स्मृति आदि को भाव अंश में प्रवर्तकपना क्यों विरुद्ध नहीं पड़ेगा? अर्थात् अवश्य पड़ेगा। उपमान, अनुमान, अर्थापत्ति, अभाव, आगम, प्रमाणों में स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्क का अन्तर्भाव नहीं हो पाता है। अतः स्मृति आदि को भिन्न प्रमाणपने की सिद्धि हो जाती है इसलिए चार, पाँच, छह अथवा और भी अधिक प्रमाणों को कहने वाले नैयायिक, मीमांसक आदि के यहाँ अपने अभीष्ट प्रमाणों की संख्या का विघात हो जाना सिद्ध होता है। __इस ग्रन्थ में आगे कहे जाने वाले “आद्ये परोक्षं,” “प्रत्यक्षमन्यत्" -इन दो सूत्रों के सामर्थ्य से जो दो संख्या विशेष प्रमाण कहा है, उसी को अकलंक देव ने भी प्रमाण के दो भेद कहे हैं॥१७९।।