________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *69 स्वतः सर्वप्रमाणानां प्रामाण्यमिति केचन। यतः स्वतोऽसती शक्तिः कर्तुं नान्येन शक्यते // 15 // तेषां स्वतोप्रमाणत्वमज्ञानानां भवेन्न किम् / तत एव विशेषस्याभावात्सर्वत्र सर्वथा // 9 // यथार्थबोधकत्वेन प्रमाणत्वं व्यवस्थितम्। अर्थान्यथात्वहेतूत्थदोषज्ञानादपोह्यते // 17 // तथा मिथ्यावभासित्वादप्रमाणत्वमादितः। अर्थयाथात्म्यहेतूत्थगुणज्ञानादपोह्यते // 18 // यद्यथार्थान्यथाभावाभावज्ञानं निगद्यते। अर्थयाथात्म्यविज्ञानमप्रमाणत्वबाधकम् // 19 // इस प्रकार बाधवर्जितपना, निर्दोष कारणों से उत्पन्नपना, लोक में अच्छी प्रकार प्रतिष्ठितत्व, ये प्रमाण के लक्षण में मीमांसकों द्वारा कहे गये विशेषण सफल नहीं हैं जैसे कि अपूर्वार्थ विशेषण व्यर्थ है (नैयायिकों ने भी क्वचित् लोकसम्मतपना प्रमाण का विशेषण अभीष्ट किया है, किन्तु लोक में कई प्रमाण विरुद्ध रीति से भी प्रचलित हैं, अत: वे विशेषण व्यर्थ हैं। केवल स्व और अर्थ का निश्चय करा देना स्वरूप अथवा बाधक प्रमाणों के असम्भव का अच्छी प्रकार निश्चित हो जाना स्वरूप ही प्रमाणपने की व्यवस्था है यह परीक्षकों को श्रद्धान करने योग्य है। कोई (मीमांसक) कहते हैं कि सम्पूर्ण प्रमाणों को प्रमाणपना स्वत: ही प्राप्त हो जाता है। अर्थात् सामान्यज्ञान के कारणों से ही प्रमाणपना बन जाता है, दूसरे हेतुओं की आवश्यकता नहीं पड़ती है, क्योंकि स्वरूप से अविद्यमान शक्ति अन्य कारणों से उत्पन्न नहीं की जा सकती (मिट्टी में भी जलधारण शक्ति है और वह घट अवस्था में व्यक्त हो जाती है ऐसे ही ज्ञान में प्रमाणपने की शक्ति विद्यमान है ऐसा नहीं है कि पहले सामान्यज्ञान उत्पन्न होता है और पीछे किसी कारण कारणों से उस ज्ञान में प्रमाणपना आता है)। जैन आचार्य कहते हैं कि उन मीमांसकों के कथनानुसार संशय आदि अज्ञानों का अप्रमाणपना भी स्वतः क्यों न होगा ? क्योंकि सर्वज्ञानों में सभी प्रकार से कोई विशेषता नहीं है अर्थात्-क्या अप्रमाणपने की शक्ति पीछे की जा सकती है? नहीं। जैसे प्रमाणपना स्वतः पूर्व से विद्यमान है, वैसे ही अप्रमाणपना भी पहिले से ही विद्यमान रहना चाहिए था। फिर मीमांसक अप्रमाणपने को पर से उत्पन्न हुआ या जाना गया क्यों कहते हैं? // 95-96 // जिस प्रकार मीमांसकों के यहाँ यथार्थ बोधकत्व से प्रमाणपना व्यवस्थित है, और अर्थ के अन्यथापन तथा ज्ञान के कारणों में दोषों का ज्ञान उत्पन्न हो जाने से उस प्रमाणपने का अपवाद हो जाता है॥१७॥ वह ज्ञान अप्रमाण हो जाता है। जिस प्रकार मीमांसकों ने प्रमाणपना व्यवस्थित किया था उसी प्रकार सभी ज्ञान मिथ्याप्रकाशक होने के कारण प्रथम से अप्रमाणरूप ही व्यवस्थित हैं, यह कहा जा सकता है। अर्थ के यथात्मकपने से और हेतुओं में उत्पन्न हुए गुणों के ज्ञान से उस अप्रमाणपन का अपवाद हो जाता है अत: अर्थ का यथार्थपन और गुणयुक्त कारणों के ज्ञान होने के कारण प्रमाणपना परतः है॥९८॥ ' जैसे मीमांसक लोग अर्थ के अन्यथापनके अभाव के ज्ञान को ही अर्थ के यथार्थपन का विज्ञानरूप कहते हैं और वही अप्रमाणपन का बाधक है।९९।।