________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 74 द्वयं परत एवेति केचित्तदपि साकुलम् / स्वभ्यस्तविषये तस्य परापेक्षानभीक्षणात् // 11 // स्वभ्यस्तेपि विषये प्रमाणाप्रमाणयोस्तद्भावसिद्धौ परापेक्षायामनवस्थानापत्तेः कुतः कस्यचित्प्रवृत्तिनिवृत्ती च स्यातामिति न परत एव तदुभयमभ्युपगंतव्यं॥ तत्र प्रवृत्तिसामर्थ्यात्प्रमाणत्वं प्रतीयते। प्रमाणस्यार्थवत्त्वं चेन्नानवस्थानुषंगतः // 112 // प्रमाणेन प्रतीतेर्थे यत्तद्देशोपसर्पणम्। सा प्रवृत्तिः फलस्याप्तिस्तस्याः सामर्थ्य मिष्यते // 113 // प्रसूतिर्वा सजातीयविज्ञानस्य यदा तदा। फलप्राप्तिरपि ज्ञाता सामर्थ्यं नान्यथा स्थितिः॥११४॥ तद्विज्ञानस्य चान्यस्मात् प्रवृत्तिबलतो यदि। तदानवस्थितिस्तावत्केनात्र प्रतिहन्यते // 115 // स्वतस्तद्बलतो ज्ञानं प्रमाणं चेत्तथा न किम्। प्रथमं कथ्यते ज्ञानं प्रद्वेषो निर्निबंधनम्॥११६॥ प्रामाण्य और अप्रामाण्य की ज्ञप्ति अभ्यास दशा में अथवा अनभ्यास दशा में दूसरे कारणों से ही होती है, यह किसी नैयायिक का कथन भी आकुलता सहित है, क्योंकि भली भाँति अभ्यास को प्राप्त हुए विषय में उस प्रामाण्य अप्रामाण्य के द्वय को अन्य कारणों की अपेक्षा रखना नहीं देखा जाता है॥१११।। सम्यक् रूप से अभ्यास को प्राप्त किये गये भी विषय में प्रमाण और अप्रमाण के उस प्रमाणपन और अप्रमाणपन के अधिगम की सिद्धि करने में यदि अन्यों की अपेक्षा मानी जायेगी तो अनवस्था दोष का प्रसंग आएगा। अत: किसकी किससे प्रवृत्ति और निवृत्ति हो सकेगी? अत: वह प्रमाणपन और अप्रमाणपन दोनों की ज्ञप्ति का पर से ही होना नहीं स्वीकार करना चाहिए। वहाँ नैयायिक या वैशेषिक प्रवृत्ति की सामर्थ्य से प्रमाणपना प्रतीत होता है, यह मानते हैं। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार प्रमाण को अर्थ सहितपना मानना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर अनवस्था दोष का प्रसंग आता है। जैसे प्रमाण के द्वारा अर्थ के प्रतीत हो जाने पर जो उस प्रमेय के देश में झटपट गमन करता है, वह प्रवृत्ति है या जलज्ञान से जल को जानकर स्नान, पान, अवगाहनरूप फल की प्राप्ति हो जाना उस प्रवृत्ति का सामर्थ्य है? अथवा जलज्ञान की दृढ़ता को सम्पादन करने के लिए जलज्ञान के समान जाति वाले दूसरे विज्ञान की उत्पत्ति हो जाना सामर्थ्य है? वा यदि प्रथम पक्ष ग्रहण करोगे तो स्नान, पान आदि फल की प्राप्ति भी अन्यज्ञान से होना सिद्ध होगी। अन्यथा (दूसरे प्रकारों से) व्यवस्था नहीं हो सकेगी। उस फलप्राप्ति को जानने वाले विज्ञान की प्रमाणता अन्य किसी प्रवृत्ति सामर्थ्य से यदि जानी जावेगी तो वह दूसरा प्रवृत्ति सामर्थ्य भी फलप्राप्ति रूप होगा। वह फलप्राप्ति भी किसी ज्ञान से जानी गई होकर ही सामर्थ्य बन सकती है नहीं जानी गयी हुई फल प्राप्ति तो प्रवृत्ति सामर्थ्य बन नहीं सकती है अत: अतिप्रसंग दोष आएगा। फलप्राप्ति को पुन: जानने के लिए अन्य ज्ञानों की आवश्यकता पड़ेगी और उन ज्ञानों को प्रमाणपना अन्य प्रवृत्ति सामर्यों से होगा। तब तो यहाँ अनवस्था दोष का प्रतिघात किसके द्वारा हो सकता है? // 112115 // अनवस्था दोष के निवारण के लिए यदि उस प्रवृत्ति की सामर्थ्य से हुए दूसरे ज्ञान को प्रमाणपना स्वतः माना जाता है तब तो उस प्रकार पहला ज्ञान भी स्वतः प्रमाणरूप क्यों नहीं माना जाए? कारण के बिना ही दोनों में से किसी एक के साथ विशेष द्वेष करना समुचित नहीं है॥११६॥