________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 76 अर्थसंशयतो वृत्तिरनेनैव निवारिता। अनर्थसंशयाद्वापि निवृत्तिर्विदुषामिव // 121 // परलोकप्रसिद्ध्यर्थमनुष्ठानं प्रमाणतः। सिद्धं तस्य बहुक्लेशवित्तत्यागात्मकत्वतः // 122 // इति ब्रुवन् महायात्राविवाहादिषु वर्तनम्। संदेहादभिमन्येत जाड्यादेव महत्तमात् // 123 // ____ परलोकार्थानुष्ठाने महायात्राविवाहादौ च बहुक्लेशवित्तत्यागाविशेषेपि निश्चितप्रामाण्याद्वेदनादेकनान्यत्र वर्तनं संदेहाच्च स्वयमाचक्षाणस्य किमन्यत्कारणमन्यत्र महात्तमाज्जाड्यात्। एकत्र परस्पराश्रयस्यान्यत्र प्रामाण्यव्यवस्थापनवैयर्थ्यस्य च तदवस्थत्वात्॥ तस्मात्प्रेक्षावतां युक्ता प्रमाणादेव निश्चितात्। सर्वप्रवृत्तिरन्येषां संशयादेरपि क्वचित् // 124 // इसी हेतु से अर्थ के संशय से होने वाली वृत्ति का निवारण कर दिया है अर्थात् संशय ज्ञान से अर्थ की सिद्धि नहीं होती। अनर्थ के संशय से भी विद्वानों की अनुचित कार्यों से जैसे निवृत्ति हो जाती है, वैसे ही इष्ट अर्थ के संशय से पदार्थों में प्रवृत्ति हो जाती है, यह पक्ष भी इस उक्त कथन से निवारित कर दिया गया है। ऐसा समझ लेना चाहिए। (प्रेक्षापूर्वकारी पुरुष संशय से प्रवृत्ति नहीं करते हैं)॥१२१॥ परलोक की प्रसिद्धि के लिए दीक्षा, उपवास, परीषहसहन, ब्रह्मचर्य आदि अनुष्ठान करना प्रमाणों से सिद्ध है, क्योंकि वह अनुष्ठान अधिकक्लेश, धनत्याग, स्त्रीपुत्रनिवारण आत्मक है। अत्यन्त परोक्ष परलोक की सिद्धि के लिए परिग्रह का त्याग, पुत्र-घर आदि का त्याग, कायक्लेश आंत्मक अनुष्ठानों को संशय रहित होकर स्वीकार करते हैं। ऐसा कहने वाले जब अत्यन्त परोक्ष परलोक के लिए प्रमाणों से सिद्ध किये गये अनुष्ठानों में प्रवृत्ति होना मानते हैं और बड़ी यात्रा, विवाह, आदिक. में संदेह से प्रवृत्ति करना अभिमान पूर्वक अभीष्ट करते हैं, तब आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कथन करने वाले एकान्ती पुरुष महामूर्ख हैं इसमें जड़ता ही कारण कही जा सकती है // 122-123 // - परलोक के अर्थ दीक्षा आदि कर्मों के अनुष्ठान करने में और महायात्रा, विवाह प्रतिष्ठा कर्म आदि में बहत क्लेश और धन त्याग विशेषतारहित होने पर भी एक स्थल पर (परलोक के लिए) तो प्रामाण्यनिश्चय वाले वेदन से प्रवृत्ति होना कह रहे हैं तथा दूसरे स्थल पर विवाह आदि में नैयायिक लोग स्वयं संदेह से प्रवृत्ति कर रहे हैं। उनके इस कथन से अधिक जड़ता के अतिरिक्त दूसरा क्या कारण कहा जा सकता है? एक स्थान पर अन्योन्याश्रय दोष और दूसरे स्थान पर प्रमाणपने की व्यवस्था कराने का व्यर्थपना दोष वैसे का वैसा ही अवस्थित रहता है और संदेह से प्रवृत्ति होना मानने से ज्ञानों में प्रमाणपन व्यर्थ होता है अत: हिताहित विचारने की बुद्धि को धारण करने वाले पुरुषों का सभी क्रियाओं में निश्चित प्रमाण से ही प्रवृत्ति करना युक्त है। विचार कर कार्य को नहीं करने वाले दूसरों के किसी-किसी कार्य में संशय, विपर्यय आदि से भी प्रवृत्ति का होना मान लिया गया है॥१२४।।