________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *75 एतेनैव सजातीयज्ञानोत्पत्तौ निवेदिता। अनवस्थान्यतस्तस्य प्रमाणत्वव्यवस्थितेः॥११७॥ न च सामर्थ्य विज्ञाने प्रामाण्यानवधारणे। तन्निबंधनमाद्यस्य ज्ञानस्यैतत् प्रसिद्ध्यति॥११८॥ न ह्यनवधारितप्रामाण्याद्विज्ञानात् प्रवृत्तिसामर्थ्य सिद्ध्यति यतोनवस्थापरिहारः। प्रमाणतोर्थप्रतिपत्ती प्रवृत्तिसामर्थ्यादर्थवत्प्रमाणमित्येतद्वा भाष्यं सुघटं स्यात् प्रवृत्तिसामर्थ्यादसिद्धात् प्रमाणस्यार्थवत्त्वाघटनात्। किं च प्रमाणतः प्रवृत्तिरपि ज्ञातप्रामाण्यादज्ञातप्रामाण्याद्वा स्यात् / ज्ञातप्रामाण्यतो मानात्प्रवृत्तौ केन वार्यते। परस्पराश्रयो दोषो वृत्तिप्रामाण्यसंविदोः॥११९॥ अविज्ञातप्रमाणत्वात् प्रवृत्तिश्चेद्वथा भवेत् / प्रामाण्यवेदनं वृत्तेः क्षौरे नक्षत्रपृष्टिवत् // 120 // इस उक्त कथन से सजातीय ज्ञान की उत्पत्ति रूप प्रवृत्तिसामर्थ्य का भी निवारण कर दिया गया है। द्वितीय पक्ष के अनुसार मानी गयी सजातीय ज्ञान की उत्पत्ति में भी अनवस्था दोष आता है यह निवेदन किया है क्योंकि उस दूसरे सजातीय ज्ञान को प्रमाणपना अन्य सजातीय ज्ञान से व्यवस्थित होता है। जब तक प्रवत्ति सामर्थ्य के विज्ञान में प्रामाण्य का निर्णय नहीं होगा तब तक उस प्रवृत्ति के सामर्थ्य को कारण मानकर उत्पन्न होने वाली आदि के ज्ञान की यह प्रमाणता प्रसिद्ध नहीं हो सकती अतः अन्य ज्ञानों के द्वारा प्रवृत्ति के सामर्थ्य से विज्ञान में प्रामाण्य का निर्णय करने पर अनवस्था हो जाती है॥११७-११८॥ __ जिस प्रमाण का निर्णय नहीं है, उस विज्ञान से प्रवृत्ति का सामर्थ्य सिद्ध नहीं होता है जिससे कि अनवस्था का परिहार हो सके। अनिर्णीत ज्ञान में प्रमाणता सिद्ध नहीं हो सकती अतः जो ज्ञान प्रमाणभूत नहीं है उससे अनवस्था का परिहार नहीं हो सकता। प्रमाण से अर्थ की प्रतिपत्ति हो जाने पर प्रवृत्ति की सामर्थ्य से प्रमाण अर्थवान् है इस प्रकार यह न्यायभाष्य घटित होता है। अर्थात्-नैयायिकों के ऊपर अनवस्था दोष लागू रहेगा और न्याय भाष्यकार का वचन घटित नहीं होगा क्योंकि प्रमाणों से नहीं सिद्ध किये गये प्रवृत्ति सामर्थ्य से तो प्रमाण का अर्थवानपना घटित नहीं होता अर्थात् अप्रमाणभूत ज्ञान से अर्थ की सिद्धि नहीं होती। . किं च, जान लिया गया है प्रमाणपना जिसका, ऐसे प्रमाण से प्रवृत्ति करना मानते हैं? अथवा नहीं जाना गया है प्रामाण्य जिसका ऐसे प्रमाण से प्रवृत्ति होना मानते हैं? इस प्रकार प्रश्न उठते हैं - जान लिया गया है प्रामाण्य जिसका ऐसे प्रमाण से यदि प्रमेय में प्रवृत्ति होना माना जायेगा तो प्रवृत्ति और प्रामाण्य ज्ञान में अन्योन्याश्रय दोष कैसे निवारित किया जा सकता है? (प्रवृत्ति कराने वाले ज्ञान का प्रमाणपना निश्चय हो जाने पर उस प्रामाण्यग्रस्त ज्ञान से प्रमेय की प्रतिपत्ति और प्रमेय की प्रतिपत्ति हो जाने पर उसमें प्रवृत्ति होने की सामर्थ्य से प्रमाणपने का निश्चय होना यह अन्योन्याश्रय दोष है)। नहीं जाना गया है प्रामाण्य जिसका ऐसे ज्ञान से यदि प्रवृत्ति होना माना जायेगा तो. सर्वत्र प्रामाण्य का निश्चय करना व्यर्थ होगा। जैसे कि बालों के काटे जाने पर फिर नक्षत्र का पूछना व्यर्थ है। अर्थात् अनिर्णीत प्रमाण से यदि पदार्थ की जानकारी हो जाती है तो फिर प्रमाण में प्रमाणता की आवश्यकता ही क्या है? जैसे शिर मुंडाने के बाद नक्षत्र पूछना व्यर्थ है, उसी प्रकार प्रमाण में प्रमाणता के बिना वस्तु की सिद्धि हो जाती है, तो फिर उसमें प्रमाणता स्वीकार करना व्यर्थ है॥११९-१२०।।