________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक* 77 द्विविधा हि प्रवर्तितारो दृश्यते विचार्य प्रवर्तमाना: केचिदविचार्य चान्ये। तत्रैकेषां निश्चितप्रामाण्यादेव वेदनात् क्वचित्प्रवृत्तिरन्यथा प्रेक्षावत्वविरोधात्। परेषां संशयाद्विपर्ययाद्वा अन्यथाऽप्रेक्षाकारित्वव्याघातादिति युक्तं वक्तुं, लोकवृत्तानुवादस्येवं घटनात्। सोयमुद्योतकर: स्वयं लोकप्रवृत्तानुवादमुपयत्प्रामाण्यपरीक्षायां तद्विरुद्धमभिदधातीति किमन्यदनात्मज्ञतायाः। ननु च लोकव्यवहार प्रति बालपंडितयोः सदृशत्वादप्रेक्षावत्तयैव सर्वस्य प्रवृत्तेः क्वचित्संशयात् प्रवृत्तिर्युक्तैवान्यथाऽप्रेक्षावतः प्रवृत्त्यभावप्रसंगादिति चेत् न, तस्य क्वचित्कदाचित्प्रेक्षावत्तयापि प्रवृत्त्यविरोधात्॥ प्रेक्षावता पुनर्जेया कदाचित्कस्यचित्क्वचित्। अप्रेक्षकारिताप्येवमन्यत्राशेषवेदिनः // 125 // कार्यों में प्रवृत्ति करने वाले जीव दो प्रकार के देखे जाते हैं-विचार कर प्रवृत्ति करने वाले तथा बिना विचारे प्रवृत्ति करने वाले। उन दोनों में प्रथम श्रेणी के जीवों की किसी भी कार्य में प्रामाण्य के निश्चय वाले ज्ञान से ही प्रवृत्ति होती है। अन्यथा (यदि प्रामाण्य से निश्चय नहीं करने वाले ज्ञान से प्रवृत्ति करना मान लिया जायेगा तो) उन जीवों के विचारशालिनी बुद्धियुक्तता का विरोध आता है। तथा दूसरी श्रेणी वाले जीवों के संशयज्ञान और विपर्ययज्ञान से भी कहीं प्रवृत्ति होती है। अन्यथा उनके विचारकर कार्य नहीं करने वाली बुद्धि से सहितपने का व्याघात होगा, इस प्रकार कहना युक्त है। लोक में ऐसा ही बर्ताव देखा गया है अतः यह नैयायिकों के चिन्तामणि ग्रन्थ की उद्योत नामक टीका को करने वाला विद्वान स्वयं लोक में आचरित अनुवाद को स्वीकार करता हुआ फिर प्रमाणपन की परीक्षा करते समय उससे विरुद्ध कह रहा है। उसमें अपनी आत्मा को नहीं पहिचानने के अतिरिक्त और क्या कारण कहा जा सकता है-अर्थात् उनका यह कथन उनकी मूर्खता को प्रकट कर रहा है। प्रश्न : लौकिक व्यवहार के प्रति बालक और पंडित दोनों समान हैं अत: दोनों की ही विचार रहित बुद्धि से युक्त प्रवृत्ति होनी चाहिए अत: संशयज्ञान से प्रवृत्ति हो जाना युक्त ही है। अगर ऐसा न मानकर अन्यथा मानोगे तो जैन मतानुसार विचार नहीं करने वाले अज्ञजनों की प्रवृत्ति होने के अभाव का प्रसंग आयेगा। उत्तर : इस प्रकार नहीं कहना चाहिए। क्योंकि उन सब जीवों की कहीं-कहीं कभी विचारयुक्त बुद्धिसहितपने से भी प्रवृत्ति हो जाने का कोई विरोध नहीं है। अर्थात् मूर्ख भी विचार कर इष्टकार्य में प्रवृत्ति करता है। सर्व जीवों में से किसी जीव की बुद्धियुक्त किसी विषय में किसी भी समय किसी कारण से प्रवृत्ति होती है और फिर इसी प्रकार किसी जीव के कहीं किसी समय बिना विचारे कार्य करने वाली बुद्धि से सहितपना भी अंतरंग बहिरंग कारणों से बन जाता है। सम्पूर्ण पदार्थों को युगपत् जानने वाले सर्वज्ञ भगवान के मनपूर्वक विचार करना माना नहीं गया है अत: सर्वज्ञ के अतिरिक्त अन्य जीवों के बुद्धियुक्त और बुद्धि रहित होकर कार्य करना स्वकीय कारणों से बन जाता है॥१२५॥