________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *73 ज्ञानकारणेषु दोषाभावो गुणाभावो वा गुणदोषस्वभावः स्वतो विभाव्यते यतो जातमात्रस्यादुष्टा दुष्टा वा नेत्रादयः प्रत्यक्षहेतवः सिद्धेयु: धूमादितदाभासा वानुमानहेतवः शब्दतदाभासा वा शाब्दज्ञानहेतवः प्रमाणांतरहेतवो वा यथोपवर्णिता इति। कथं वानभ्यासे दुष्टो वक्ता गुणवान् वा स्वतः शक्योवसातुं यतः शब्दस्य दोषवत्त्वं गुणवत्त्वं वा वक्त्रधीनमनुरुध्यते। तथा वक्तुर्गुणैः शब्दानां दोष उपनीयते दोषैर्वा गुण इत्येतदपि नानभ्यासे स्वतो निर्णेयं, वक्तृरहितत्वं वा गुणदोषाभावनिबंधनतया चोदनाबुद्धेः प्रमाणेतरत्वाभावनिबंधनमिति न प्रमाणेतरत्वयो समत्वं सिद्ध्येत् स्वतस्तन्निबंधनं सर्वथानभ्यासे ज्ञानानामुत्पत्तौ स्वकार्ये च सामायंतरस्वग्रहणनिरपेक्षत्वासिद्धेश्च। ततो न स्वत एवेति युक्तमुत्पश्यामः॥ अनभ्यास दशा में अपवाद विषयों को टालकर स्वतः ही दोनों नहीं जाने जा सकते हैं और ऐसा होने पर विषय अर्थके विपरीतपन का अभावज्ञान तो अप्रमाणपने का बाधक नहीं सिद्ध हो सकता और ज्ञेय अर्थके विपरीतपन का ज्ञान प्रमाणपन का बाधक नहीं सिद्ध हो सकता। अर्थ का यथार्थपन और विपरीतपन उन अप्रमाणपन और प्रमाणपन के वहाँ बाधक हो जाता है। उनको दूर करने के लिए अन्य ज्ञापकों की आवश्यकता होती है तथा अनभ्यास दशा में ज्ञान के कारणों में दोषों का अभाव अथवा गुणों का अभाव वा गुण या दोषस्वरूप है, यह स्वतः तो विचार नहीं किया जा सकता है जिससे कि उसी समय उत्पन्न हुए बच्चे तक के भी नेत्र आदि दोष रहित अथवा दोष सहित होते हुए वे प्रत्यक्ष के प्रमाणपन और अप्रमाणपन के कारण सिद्ध हो सकें अथवा निर्दोष धूम आदिक हेतु और सदोष हेत्वाभास ये अनुमान के प्रमाणपन और अप्रमाणपन के कारण सिद्ध हो सकें। अथवा निर्दोष शब्द और सदोष शब्दाभास ये आगमज्ञान के प्रमाणपन एवं अप्रमाणपन के कारण सिद्ध हो जाएँ। अथवा आपने जिस प्रकार अन्य प्रत्यभिज्ञान, अर्थापत्ति आदि प्रमाणों के हेतु वर्णन किये हैं, वे निर्दोष और सदोष होते हुए उनके प्रमाणपन और अप्रमाणपन के हेतु सिद्ध हो जाएँ। अर्थात् अनभ्यास दशा में सदोष एवं निर्दोष कारणों का जानना कठिन है। अथवा अनभ्यास दशा में दोषवान वक्ता अथवा गुणवान वक्ता का स्वत: ही निर्णय कैसे किया जा सकता है जिससे कि मीमांसकों का यह अनुरोध हो सके कि शब्द को दोषयुक्तपना और गुणयुक्तपना तो वक्ता के आधीन है। तथा वक्ता के गुणों के द्वारा शब्द के दोषों का निवारण हो जाता है और वक्ता के दोषों से शब्द के गुण दूर कर दिये जाते हैं। इस प्रकार यह भी अनभ्यासदशामें अपने आप निर्णय करने योग्य नहीं है। अथवा वेद का वक्तारहितपना ही गुण और दोष के अभाव का कारण हो जाने से वेदवाक्यजन्य ज्ञान के प्रमाणपन और अप्रमाणपन के अभाव का कारण हो जाता है, यह भी निर्णय नहीं किया जा सकता है, जिससे अभ्यास और अनभ्यास दशा में प्रमाणपन और अप्रमाणपन का एक साधन सिद्ध हो सके। अर्थात्दोनों एक से हैं। स्वतः होने के अथवा परतः ज्ञप्ति होने के उनके कारण एक से हैं और सर्वथा अनभ्यास दशा में ज्ञानों की उत्पत्ति और स्वकार्य में भी अन्य सामग्री और स्वग्रहण का निरपेक्षपना असिद्ध है। यानी प्रमाण के कार्य यथार्थ परिच्छेद अथवा “यह प्रमाण है"-ऐसा निर्णय होना रूप कार्य में अन्य सामग्री की और स्व के ग्रहण की ज्ञान को अपेक्षा है। प्रामाण्य की उत्पत्ति में ज्ञान के सामान्य कारणों से अतिरिक्त अन्य कारणों की अपेक्षा पहले बतला दी गयी है अत: उत्पत्ति, ज्ञप्ति और स्वकार्य करने में प्रामाण्य स्वतः ही है, यह एकान्तवादियों का कहना युक्त नहीं है।