________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 46 तदालंबनप्रत्ययत्वेपि तस्य तच्छून्यतावत्। “यत्रैव जनयेदेनां तत्रैवास्य प्रमाणता" इति वचनात्। ततो नायं सन्निकर्षवादिनमतिशेते॥ किं चस्वसंविदः प्रमाणत्वं सारूप्येण विना यदि। किं नार्थवेदनस्येष्टं पारंपर्यस्य वर्जनात् // 36 // सारूप्यकल्पने तत्राप्यनवस्थोदिता न किम्। प्रमाणं ज्ञानमेवास्तु ततो नान्यदिति स्थितम् // 37 // स्वसंविदः स्वरूपे प्रमाणत्वं नास्त्येवान्यत्रोपचारादित्ययुक्तं सर्वथा मुख्यप्रमाणाभावप्रसंगात् स्वमतविरोधात्। प्रामाण्यं व्यवहारेण शास्त्रं मोहनिवर्तनमिति वचनात् मुख्यप्रमाणाभावे न स्वमतविरोध: सौगतस्येति चेत्, स्यादेवं / यदि मुख्यं प्रमाणमयं न वदेत् “अज्ञातार्थप्रकाशो वा स्वरूपाधिगतेः परं” इति / नरकगमनयोग्यता आदि के साथ तदाकारपना होते हुए भी उन क्षणिकत्व आदि की अधिगति का अभाव स्वयं बौद्धों ने इष्ट ही किया है। भावार्थ : दाता को विषय करने वाले निर्विकल्पक ज्ञान में दान का आकार पड़ जाने से उसकी तदात्मक स्वर्गप्रापणशक्ति का भी आकार उस ज्ञान में पड़ चुका है। फिर इनको जानने के लिए दूसरे अनुमान ज्ञान क्यों उठाये जाते हैं? अर्थात् तदाकारता के होने पर भी अधिगति की शून्यता देखी जाती है। जैसे उनको उस ज्ञान का आलम्बन कारण मानते हुए भी उस अधिगति की शून्यता है “जिस विषय में निर्विकल्प बुद्धि उत्पन्न होती है उस ज्ञान में प्रमाणता है," यह बौद्ध का वचन है अत: यह बौद्ध सन्निकर्ष को प्रमाण कहने वाले वैशेषिकों का उल्लंघन नहीं करता है अर्थात् बौद्ध और वैशेषिकों के कथन में कोई अन्तर नहीं है। अथवा, तदाकारता के बिना भी यदि स्वसंवेदन को प्रमाण मानते हो तो अर्थज्ञान को भी तदाकारता के बिना ही प्रमाणपना क्यों न मान लिया जाता है ? इसमें परम्परा परिश्रम करना भी छूटता है, क्योंकि इसमें ज्ञान और अर्थ के बीच में तदाकारता का प्रवेश नहीं होता है। यदि स्वसंवेदन प्रत्यक्ष में भी ज्ञान का आकार पड़ना मानोगे तो उसको जानने वाले उसके स्वसंवेदन में भी तदाकारता माननी पड़ेगी और उसको भी जानने वाले तीसरे स्वसंवेदन में ज्ञान का प्रतिबिम्ब मानना पड़ेगा। इस प्रकार अनवस्था का उदय क्यों नहीं होगा? अवश्य होगा अतः ज्ञान ही प्रमाण है उससे भिन्न सन्निकर्ष, तदाकारता, इन्द्रिय आदि प्रमाण नहीं हैं, यह निश्चित स्थित है॥३६-३७॥ बौद्ध के द्वारा स्वीकृत संवेदनाद्वैत का खण्डन - ___ स्वसंवेदन प्रत्यक्ष को ज्ञान का स्वरूप जानने में प्रमाणता नहीं है अन्यत्र उपचार होने से अर्थात् उपचार से ही स्वसंवेदन प्रत्यक्ष प्रमाण है। तदाकारता न होने से वह मुख्य प्रमाण नहीं माना गया है। इस प्रकार बौद्धों का कहना भी युक्तिरहित है, क्योंकि ऐसा मानने पर मुख्य प्रमाणों के अभाव का प्रसंग आयेगा और ऐसा होने पर बौद्धों को अपने मत से विरोध आता है। प्रमाणपना कोई वास्तविक पदार्थ नहीं है। केवल व्यवहार से प्रमाणपना मान लिया गया है तथा शास्त्र भी कोई नियत प्रमाण नहीं है। शास्त्र केवल मोह की निवृत्ति कर देता है, ऐसा हमारे ग्रन्थ में कहा है अतः मुख्य प्रमाणों के न मानने पर हमको अपने मत से कोई विरोध नहीं आता है। ऐसा कहने वाले सौगत के प्रति स्याद्वादी कहते हैं कि इस प्रकार तब हो सकता था यदि यह बौद्ध प्रमाण को न कहता किन्तु