________________
मेरे तीन नवजाबेः प्रेम और अब-अति और अंतिम छोना
सिद्धांत को मानता है। और वह सिद्धांत यह है दैट एवरी क्वालिटेटिव चेंज इज़ थू क्वांटिटेटिव चेंज। सब परिवर्तन, सब क्रांतियां, परिमाण के आधिक्य से गुणात्मक क्रांतियों में रूपांतरित हो जाती हैं। वही चीज निन्यानबे डिग्री पर पानी थी। वही सौ डिग्री पर भाप बन जाती है। .
तुम परमात्मा को पाने चले हो; बड़ी ऊर्जा चाहिए होगी। बड़ी यात्रा है। तुम्हारे पंख बड़े सबल चाहिए। तुम बीच में चुक न जाओ। संयम! संयम का अर्थ है अति से बच जाना।
तुम्हारे तो संयमी भी अतिवादी हैं। तुम मेरे संयम का अर्थ समझ लेना। तुम तो उनको संयमी कहते हो जो अतिवादी हैं। घर छोड़ दिया, पत्नी को छोड़ कर भाग गए, धन नहीं छूते, उपवास करते हैं, सिर के बल खड़े हैं, कांटों पर लेटे हैं; उनको तुम कहते हो, कैसा संयमी आदमी!
यह संयमी नहीं है। यह तुम्हारा ही रोग है, उलटा खड़ा हो गया। शीर्षासन कर रहा है, बस। यह तुम्हीं हो उलटे खड़े। संयमी आदमी तो मध्य में होता है। संयमी आदमी में अति की कठोरता नहीं होती, मध्य का माधुर्य होता है। संयमी आदमी प्रफुल्ल होता है; न उदास, न विक्षिप्त रूप से हंसता हुआ; प्रफुल्ल, एक सहज प्रफुल्लता होती है। एक स्मित होता है संयमी आदमी के जीवन में, एक मुस्कुराहट होती है, और एक माधुर्य होता है।
तुम्हारे संयमी तो बड़े कठोर हैं। इतनी कठोरता मध्य में है ही नहीं। तुम जैसे धन के पीछे लगे हो, वे धन छोड़ने के पीछे लगे हैं। तुम जैसे स्त्रियों के पीछे भाग रहे हो, वे स्त्रियों को छोड़ कर भाग रहे हैं। लेकिन दोनों की गति समान है। दिशा अलग हो, अति समान है। तुम अगर दीवाने हो कि कैसे ज्यादा खा जाएं, वे दीवाने हैं कि कैसे और खाने में कमी कर दें। - दोनों के मध्य में कहीं छिपा है संयम।
अति न करने से आदमी के पास शक्ति आरक्षित होती है, संयम उपलब्ध होता है। और संसार में प्रथम न होने की धृष्टता से, संसार में प्रथम होने के पागलपन से जो बच जाता है, वह शांत हो जाता है।
उसकी सब अशांति खो जाती है। और उस शांति में वह चुपचाप अपने भीतर की प्रौढ़ता की तरफ गतिमान होने लगता है। बाहर की दौड़ न रही, तो ऊर्जा अब भीतर की यात्रा पर निकल जाती है। वह शायद दूसरी मूर्तियां नहीं बनाता, लेकिन खुद की मूर्ति निर्मित होती है। शायद दुनिया उसे जान भी न पाए कि वह कब जीया और कब चला गया; शायद उसकी पगध्वनि भी न सुनाई पड़े। सभी बुद्ध जाने नहीं जाते, बहुत से बुद्ध तो चुपचाप विदा हो जाते हैं, पता भी नहीं चलता। क्योंकि तुम उसे पहचान भी न पाओगे। वह इतने आखिर में खड़ा था, इतने अंत में खड़ा था। उसका कोई भी दावा न था। जिसको झेन फकीर कहते हैं कि वह इतना अति साधारण हो गया कि उसे कोई पहचान भी नहीं पाता। पहचान के लिए भी तो पताकाएं चाहिए, झंडे चाहिए, शोरगल चाहिए। जो व्यक्ति अंत में होने को राजी है, वह दुनिया के बाहर हो गया।
अगर तुम मुझसे पूछो तो इसे मैं संन्यास कहता हूं। हिमालय पर जाने से संन्यास नहीं होगा, क्योंकि वहां भी प्रतिस्पर्धा जारी रहेगी कि कोई शिवानंद, कोई अखंडानंद, कोई फलानंद, वे अभी तक आगे हैं; कि फलाना शंकराचार्य होकर मठ पर बैठ गया है, अभी हम वहां तक नहीं पहुंचे। वहां भी राजनीति चलेगी। शंकराचार्य भी अदालतों में खड़े रहते हैं, मुकदमे लड़ते हैं कि असली शंकराचार्य कौन है।
तुम कहीं भी भाग जाओगे, उससे हल न होगा। अगर भागना ही है तो अंतिम होने में भाग जाओ। तुम जैसे हो अपने को वैसा स्वीकार कर लो। मत पड़ो प्रतिस्पर्धा में; मत करो दूसरे के साथ कोई दौड़। और तब तुम पाओगे, तुम्हारा सहज स्वभाव धीरे-धीरे विकसित होने लगा। तुम प्रौढ़ता को, मैच्योरिटी को, सघनता को, आंतरिक केंद्र को उपलब्ध हो सकोगे। जिसने बाहर की प्रतिस्पर्धा छोड़ दी उसकी अंतर्यात्रा शुरू हो जाती है।
-
25