Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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| श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद
करने वाली (संदेह हरणे सतीम् ) तत्त्व विभ्रम रूप संदेह का निवारण करने में समर्थ (भुक्तिमुक्तिप्रदां ) भक्ति और मुक्ति को देने वाली ( श्रीसर्वज्ञ मुखाम्भोजसमुत्पन्नां ) श्री सर्वज्ञदेव मुख कमल से समुत्पन्न ( भारती - सरस्वती ) भारती सरस्वती को (नेत्रप्रायो ) जो तत्त्वदर्शन के लिये चक्षु के समान हैं ( सतोम् ) उन जिनवाणी माँ सरस्वती को ( वन्दे ) नमस्कार करता हूँ ।
मावार्थ - श्री जिनेन्द्र प्रभु के मुख कमल से समुत्पन्न को सरस्वती भारती हैं वह माता के समान भव्य जीवों का पालन पोषरण रक्षण करने वाली है । तत्त्व विभ्रम का निवा रकर, संदेह जन्य कष्ट को दूर कर तत्त्व निश्चिति वा श्रद्धा को सुदृढ़ करने वाली, उस जिनवाणी माता की आज्ञानुसार चलने वाले भव्य जीवों का लौकिक और पारलौकिक जीवन सुखमय होता है । तथा शीघ्र ही मोक्ष लक्ष्मी को वह प्राप्त कर लेता है ऐसी जिनवाणी सरस्वती को मैं नमस्कार करता हूँ | || १७ || १८॥
आगे गुरु वन्दना करते हुए प्राचार्य लिखते हैं
साधवः ।
जयन्तु गुरवो नित्यं सूरिपाठक ये सदा भव्यजन्तूनां संसाराम्बुधि सेतवः ।। १६ ।।
श्रन्वयार्थ ----(सदा ) सदाकाल-सर्वदा ( ये ) जो ( भव्यजन्तूनां ) भव्य जीवों को ( संसाराम्बुधिसेतवः ) संसार समुद्र को पार करने के लिए पुल के समान हैं ऐसे ( सूरिपाठकसाधवः) प्राचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठी ( नित्यं ) सदा ( जयन्तु ) जयवन्त होवें । यहां आशीर्वचन रूप स्तुति है ।
भावार्थ - निरन्तर ज्ञान, व्यान तप में लीन रहने वाले जो सम्पूर्ण वाह्य अभ्यंतर परिग्रह के त्यागी दिगम्बर गुरु हैं अथवा आचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठी हैं, उनके वन मोक्ष की प्राप्ति में उसी प्रकार साधक हैं जैसे समुद्र को पार करने में पुल-सेतु साधक होता है। गुरु के वचनानुसार प्रवृत्ति करने वाला निश्चय से मोक्ष को प्राप्त करता है। उस उत्तम मुक्ति की प्राप्ति के लिये श्राचार्य श्री " जयन्तु गुरवो" शब्दों में स्तुति करते हुए गुरु भक्ति को प्रकट करते हैं ।। १६ ।।
अब अपने कार्य की निर्विध्न सिद्धि के लिये विशेष रूप से गुरुजनों का स्मरण करते हैं --
कुन्दकुन्दाख्यविद्यादिनन्दिश्रीमल्लिभूषण |
श्रुताविसागरादीनां गुरूणां संस्मराम्यहम् ॥ २० ॥
अन्वयार्थ - ( कुन्दकुन्दारूय) श्री कुन्दकुन्दा नामक आचार्य तथा ( विद्यानन्दश्रीमल्लि भूषण) विद्यानन्द और श्रीमल्लिभूषण का तथा ( श्रुतसागरादीनां गुरुगां ) श्रुतसागरादि गुरुयों का ( श्रहम् संस्मरामि ) मैं स्मरण करता हूँ ।
भावार्थ - गुरुभक्ति की पवित्र भावना से प्रेरित हुए प्राचार्य श्री, यहाँ पुनः श्री