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विवाह किया था । वैराग्य भावना उनके हृदय में थी । यद्यपि इनके श्वसुर धनिक थे और अपुत्रवान् होने से इन्हें सम्पूर्ण धन का वारिस बनाना चाहते थे, पर ये तो सांसारिक सम्पत्तिको विपत्ति मानकर उससे दूर ही रहना चाहते थे। इन्होंने २५ वर्ष की तरुण वय में ही ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर लिया। श्रीसम्मेदशिखरजी की यात्रा को जाते समय इनका कटनी पदार्पण हुआ। उस समय हिन्दी का ज्ञान इन्हें बहुत सामान्य था ।
XVII
धर्म की विशेष अभिलाषा से ये कटनी करीब १ सप्ताह ठहरे। धर्मचर्चा का सुनना यही एकमात्र कार्य उस समय था। दूसरी बार सं. १९८५ में परमपूज्य आचार्य श्री १०८ शान्तिसागर जी का कटनी में चातुर्मास हुआ। उस समय संघ में आप ऐलकपद पर आसीन होकर आये थे । पार्श्वकीर्ति आपकी संज्ञा थी । यह ज्ञात हुआ कि आपने तीन वर्ष पूर्व ही क्षुल्लकदीक्षा और उसके बाद ही इस वर्ष ऐलकदीक्षा ली है। उस समय आपकी अवस्था ३२ साल की थी। संघ में इन्हें यह कार्य दिया गया था कि श्रावकों को कम
कम मूलगुण तथा उनका चिह्न यज्ञोपवीत (जनेऊ) देकर श्रावक बनावें । इस कारण इन्हें साधारण लोग जनेऊ महाराज के नाम से सम्बोधित करते थे । हृष्ट-पुष्ट शरीर, प्रसन्नवदन, सलोना सांवला रंग, मिष्टवाणी अध्यात्म-रसप्रेमी और स्निग्धदृष्टि, इस प्रकार के यदि किसी साधु की आप कल्पना कर सकते हों तो वह श्री पार्श्वकीर्ति महाराज थे।
कटनी चातुर्मास में ही उन्होंने विद्याभिवृद्धि के हेतु संस्कृत भाषा का अध्ययन प्रारम्भ किया। उनके अध्ययन प्रेम को देखकर आचार्यश्री ने संघ के अन्य साधुओं तथा क्षुल्लक ऐलकों को भी अध्ययन की प्रेरणा की। संघ में पण्डित नन्दलालजी शास्त्री सप्तम प्रतिमाधारी थे। इसलिये सभी साधुओं का अध्ययन चातुर्मास के बाद विहार कर जाने पर भी चालू रहा। दो-तीन वर्ष में ही ये संस्कृत विद्या के प्रौढ़ विद्वान् बन गए। श्री पं० नन्दनलालजी ने भी क्षुल्लक दीक्षा ली और बाद में मुनिंदीक्षा लेकर आचार्य सुधर्मसागर का पद प्राप्त किया। सोनागिर सिद्धक्षेत्र पर विक्रमांक १९८६ में पार्श्वकीर्ति जी ने आचार्य महाराज से दिगम्बरी दीक्षा धारण कर अपनी चिरकाल की बलवत्तर वैराग्य भावना को सफल किया। तारंगा पञ्चकल्याणक के समय एक दूसरे प्रसिद्ध आचार्य शान्तिसागर जी महाराज ( छाणी) के आदेशानुसार इन्हें 'आचार्य' पद प्राप्त हुआ।
इस प्रकार आप श्री १०८ आचार्य कुन्थुसागर जी बने । आपकी अगाध विद्वत्ता, सरलता, परोपकारिता और सर्वजनहितैषिता ने आपको विमल कीर्ति प्रदान की । गुजरात प्रान्त ने सबसे अधिक आपके सदुपदेशों का लाभ लिया। इस प्रान्त की रियासतों के राजा महाराजा तथा उच्च राजकर्मचारी तक आपके जीवन चरित्र तथा विद्वत्ता से प्रभावित थे। श्री आचार्य महाराज कभी-कभी एक-एक सप्ताह तक मौन रहते थे। जब कोई राजा उनके दर्शनार्थ ऐसे समय आता तो जबतक मौन न खुल जाय और उपदेश प्राप्त न कर ले तब तक वहाँ रुकता था। सुदासना, शिरोही, डूंगरपुर और वाँसवाड़ा
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