________________
निश्चित रूपसे कहा जा सकता है । इसके प्रमाणमें प्रस्तुत प्रन्यके अनेक उल्लेख उपस्थित किये जा सकते हैं। उनमेंसे कुछको यहाँ दिया जाता है।
(१) सर्व शास्त्रोंसे कुछ सारको निकालकर अपने तथा दूसरोंके लिए पुण्य-सम्पादनार्थ इस संक्षिप्त श्रावकाचारको प्रारम्भ करना । (प्र० उ० श्लोक ८-९)
(२) पृथ्वी, जल आदिका पाँच तत्त्वोंके रूपमें उल्लेख । (प्र. उ० श्लोक २४-४३ )
(३) विभिन्न प्रकारके वृक्षोंकी दातुनोंके विभिन्न गुणोंका उल्लेख। (प्र० उ० श्लोक ६३-६६ )
(४) मनुस्मृति आदिके श्लोकोंके उद्धरण । (प्र.उ० श्लोक ८५-८६ आदि)
(५) खगासन और पद्मासन जिन-प्रतिमाओंके मान-प्रमाण आदिका विधान (प्र० उ० श्लोक १२१-१३२)
(६) हीनाधिक अंग और विभिन्न दृष्टिवाली प्रतिमा-पूजनके दुष्फलोंका वर्णन । (प्र० उ० १३८-१४४ तथा १४९-१५०)
(७) भूमि-परीक्षा । (प्र० उ० श्लोक १५३-१७० ) (८) प्रतिमा-काष्ठ-पाषाण-परीक्षा । (प्र. उ० श्लोक १७७-१८२ )
(९) स्नान करनेके लिए तिथि, वार और नक्षत्रादिका विचार । (द्वि० उ० श्लोक १-१४ )
(१०) क्षौर कर्मके लिए तिथि, वार और नक्षत्रादिका विचार । (द्वि० उ० श्लोक १५-२०)
(११) नवीन वस्त्र पहिरनेमें तिथि, वार और नक्षत्रादिका विचार । ( द्वि० उ० श्लोक २२-२६)
(१२) ताम्बूल भक्षणके गुणगान । ( द्वि० उ० श्लोक ३५-४०) (१३) खेती करने और पशु पालनेका विधान । ( द्वि० उ० श्लोक ४६-४९) (१४) व्यापारियोंके हस्ताङ्गुलि संकेतोंका वर्णन । ( द्वि० उ० श्लोक ५२-५९)
(१५) स्वामी और सेवकका स्वरूप बताकर स्वामि-सेवाका विधान । ( द्वि० उ० श्लोक ७७-१०५ )
(१६) मध्याह्नकालकी पूजाके पश्चात् अपने घरके देवोंके लिए एवं अन्य देवोंके लिए पात्रमें रखकर अन्नादि समर्पणका विधान । (तृ० उ० श्लोक ८)
(१७) अतिथिको दान देनेके प्रकरणमें अजैन ग्रन्थका उद्धरण । (त० उ० श्लोक १६)
(१८) भोजनानन्तर मुखशुद्धिके प्रकरणमें महाभारतके श्लोकका उद्धरण । (तृ० उ० श्लोक ५४)
(१९) पुरुषके शारीरिक शुभाशुभ लक्षणोंका विस्तृत वर्णन । (पं० उ० श्लोक १०-८६ ) (२०) वधूके शारीरिक शुभाशुभ लक्षणोंका विस्तृत वर्णन । (पं० उ० श्लोक ८७-११०) (२१) विषकन्या का वर्णन । ( पं० उ० श्लोक १२१-१२६ )
(२२) विभिन्न ऋतुओंमें स्त्री-सेवनके कालका विधान और वात्स्यायन तथा वाग्भट्टका उल्लेख । (पं० उ० श्लोक १४४-१४६ )
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org